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एक में अनेक एक है अनेक मांहि एक, एक में अनेक है अनेकता गहतु है। लच्छिन की लच्छि लिए परतच्छ छिपाइयतु, कहूं न छिपाइयतु जग में महतु है।।११५ ।। है नाहीं है नाहिं वैनगोचर हू नाहीं यह, है नाहीं है नाहीं मांहि तिहुं भेद कीजिये। स्वपरचतुष्क मेद सेती जहां साधियतु, सो ही नयभंगी जिनवाणी में कहीजिये। स्यातपद सेती सात भंग को सरूप साधे, परमाण' भंगी सों अभंग साधि लीजिये। दोऊ सों रहत सो तो दुरनय भंगी कहा, यहै तीन भेद सातभंगी के लखीजिये ।।११६ ।। स्वसंवेद ज्ञान अमलान* परिणाम आप, आपन को दए आप आप ही सों लए हैं। आप ही स्वरूप लाभ लयो परिणामनि में, आप ही में आपरूप है के थिर थए हैं। सासती-खिणक आप उपादान आप करे, करता, करम, क्रिया आप परणए हैं। महिमा अनंत महा आप धरे आप ही की, आप अविनासी सिद्धरूप आप भए हैं। ११७ ।।
१प्रमाण, २ दोनों, ३ दुर्नय, मिथ्यानय.४ शुद्ध,५ लीन है. स्थित हैं, ६ नित्य-क्षणिक ७ परिणत हुए हैं