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सकति अनंत जामें चेतना प्रधानरूप, ताहू में' प्रधान महा ज्ञायक सकति है। परम अखंड ब्रहमंड की लखैया सो है, सूक्षम सुमाव यों सहज ही की गति है। सुपर प्रकासनी सुमासनी सरूप की है, सुख की विलासनी अपार रूप अति है। उपयोग साकार बन्यो है सरूप जाको, ज्ञान की सकति 'दीप' जाने सांची मति है ।।२।। सुसंवेद भाव के लखाव करि लखी जाहे, सब ही को पाहे बालों काहीलिये। अचल अनूप माया सास्वती अबाधित है, अतिंद्री अनाकुल में सुरस लहीजिये। अविनासरूप है सरूप जाको सदा काल, आनंद अखंड महा सुधापान कीजिये। ऐसी सुख सकति अनंत भगवंत कही, ताही में सुभाव लखि 'दीप' चिर जीजिये ।।६३।। सत्ता के अधार ए विराजत हैं सबै गुण, सत्ता मांहि चेतना है चेतना में सत्ता है। दरसन ज्ञान दोऊ एऊ भेद चेतना के, चेतना सरूप में अरूप गुण पत्ता है। चेतना अनंत गुण रूप ते अनंतधा" है, द्रव्य परजाय सोऊपर चेतन का नत्ता है। जड़ के अभाव में सुभाव सुध चेतना को, या चिद सकति में ज्ञानवान रत्ता है।।६४।। १.उसमें मी, २ ज्ञानशक्ति, ३ स्व-पर. ४ सुन्दर भासमान, ५ स्वसंवेध. ६ प्राप्ति. ७ अतीन्द्रिय, ८ अमर हो जाइये, ६ एक ही, १० प्राप्त, ११ अनन्त प्रकार, १२ वह भी. १३ नाता, सम्बन्ध, १४ अनुरक्त, लीन
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