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________________ अकृत्रिम जिन भवनों की कुल संख्या = ८,५६,६७,४८१ + असंख्यात, अर्थात ८,५६,६७,४८१ + मध्य लोक में व्यन्तर और ज्योतिर्लोक में जिन भवनों की संख्या उपर्युक्त जिन भवनों को एवम् इनमें विराजित अकृत्रिम जिन बिम्बों को मेरा त्रियोग सम्हालकर, उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक. उत्कृष्ट विनयपूर्वक, उत्कृष्ट श्रद्धापूर्वक एवम् उत्कृष्ट अनन्तानन्त बार नमस्कार होवे। (१०) मेरी स्थिति अनन्तानन्त अलोकाकाश में स्थित परोक्त वर्ण बिगोस में मा भाग में स्थित, मध्यलोक के मध्य भाग में स्थित मानुषलोक के बहुमध्य भाग में, प्रथम जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में स्थित भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में मैं इस समय विद्यमान हूँ। सन्दर्भ १. त्रिलोकसार श्री मन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ति विरचित टीकाकी, पूज्य विदुषी आर्यिका १०५ विशुद्धमति माताजी। २. तिलोयपण्णत्ती श्री यतिवृषभाचार्य- विरचित, टीकाकी पूज्य विदुषी आर्यिका १०५ विशुद्धमती माताजी- भाग १. २ और ३ जैन सिद्धान्त दर्पण- श्री स्याद्वाद वारिधि वादिगजकेसरी- न्यायवाचस्पति स्व० पंडित गोपालदास बरैया, मोरेना (ग्वालियर) द्वारा विरचित। ४. गोम्मटसार (जीवकाण्ड)– श्री मन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक चक्रवर्ति विरचित, टीका पं० खूबचन्द्र जैन। ५. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)-श्री मन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक चकवर्ति, टीका पं. मनोहर लाल जी शास्त्री। अधिकारान्त मङ्गलाचरण केवल ज्ञान रूपी तीसरे नेत्र के धारक, चौंतीस अतिशय रूपी विभूति से सम्पन्न और तीनों लोकों के द्वारा नमस्करणीय, ऐसे विदेह क्षेत्र विराजित श्री सीमंधर-युग्मंधरबाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन - भद्रबाहु-भुजङ्ग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरषेण-महाभद्र-देवयशोऽजितवीर्येति विंशति विद्यमान तीर्थङ्करों को बार-बार नमस्कार करता हूँ।
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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