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(9)
प्रथम चरण
(क) जब कोई रोगी आपके पास आता है, तो न तो तुरन्त जांच करें और न रोगी से साक्षात्कार करें अर्थात् दगी से उसके रोग के बारे में न पूछें। (ख) रोगी को सामने बैठायें। अपनी आंखें बंद करें और मन से रोगी के जीवद्रव्य शरीर और दिखाई देने वाले भौतिक शरीर को देखने व जांचने का प्रयत्न करें। सिर से लेकर पैरों तक चक्रों व मुख्य चक्रों को देखें। बड़े चक्रों पर विशेष ध्यान दें। क्या चक्र भूरे, चमकदार, मटमैले, लाल या काले हैं? इनकी भी जांच करने का प्रयत्न करें। क्या ये मोटे, पतले या सामान्य हैं? आप यह महसूस कर सकते हैं कि आप अपने हाथों से जांच कर रहे हैं। पूरे शरीर पर एक नजर डालें और ऊपर से नीचे तक प्रमुख अंगों की जांच करें। क्या वे अच्छे दिखाई देते हैं? क्या वे बहुत अधिक लाल या नीले दिखाई देते हैं? रीढ़ की हड्डी को ऊपर से नीचे तक महसूस करें। क्या आप उसमें कुछ रुकावट या इसे कुछ सरकी हुई देखते हैं या महसूस करते हैं? आपको सही जानकारी के लिए साफ-साफ, चमकदार देखने की जरूरत नहीं है। मोटे तौर पर देखना या जांचना ही काफी है। यह कार्य आरम्भ से, धीरे-धीरे किन्तु पूरी तरह करना चाहिए । कुछ अधिक समय लगने पर भी रोगी बुरा नहीं मानेगा।
(ग) अपनी आंखें खोलें। खड़े होकर रोगी की पूरी तौर पर जांच करें।
(घ)
रोगी से साक्षात्कार करें। रोगी की स्थिति का परीक्षण करें और विधि (ख) के परिणामों से उसकी तुलना करें।
पहली ही बार में आपको कुछ सीमा तक सही-सही परिणाम प्राप्त होना संभव है। जब तक आपको एकदम सही परिणाम नहीं हो जाते, तब तक अपना अभ्यास जारी रखें। यह स्थिति आपको कई सप्ताह या कई महीनों के लगातार अभ्यास से आ संकती है। ठीक-ठीक जांच पर ही सही और प्रभावकारी इलाज निर्भर है। ऐसा न होने पर न केवल प्रभावकारी इलाज नहीं होगा, अपितु रोगी की स्थिति और बिगड़ सकती है, इसलिए इसमें दक्षता आवश्यक है ।
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