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________________ से मुक्ति पाने के लिये अत्यावश्यक है। गम्भीर रोगों और संक्रामक रोगों की दशा में हाथों को कीटनाशक (germicidal) साबुन (जैसे लाइफबॉय, डैटोल, सैवलौन, कार्बोनिक साबुन) से भी धोयें। (य) उपचार के अन्त में पुनः णमोकार मंत्र बोलकर एवम् पंच परमेष्ठी को नमन करके निम्नवत् उच्चारण करें:"हे परमपिता, मैं आपका कृतज्ञ हूं कि आपने अपने उपचार का मुझे उपकरण बनाकर आशीर्वाद प्रदान किया। मेरी प्रार्थना है कि मेरे द्वारा किये गये किसी प्रकार की मन, वचन, काय की क्रिया का इस रोगी पर विपरीत प्रभाव न पड़े। विश्वास के साथ तद्नुसार हो।" यदि उपचारक चाहे तो उपचार करने के बदले कुछ सामान्य पारिश्रमिक रोगी से प्राप्त कर सकता है, किन्तु किसी रोगी के उपचार के लिए इसलिये मना नहीं करना चाहिए क्योंकि वह निर्धन है और पारिश्रमिक देने में असमर्थ है। इतना पारिश्रमिक भी नहीं रखना चाहिए कि दूसरे को खल जाये। आवश्यक्ता हो, तभी पारिश्रमिक रखना चाहिए, अन्यथा परोपकार की भावना से उपचार करें। यदि उपचारक परोपकार की भावना से उपचार करता है, तो रोगी को (सु)दान हेतु अवश्य निर्देशित करें। इसका कारण है कि साधारणतः जब तक रोगी के जेब से कुछ खर्च नहीं होता, तब तक वह समझता है कि इलाज प्रभावी नहीं होता। मुफ्त के इलाज में वह यह भी सोचता है कि चलो इलाज कराकर देख लें- फायदा हो जाए तो ठीक, अन्यथा हमारा क्या जाता है। इस भावना में इलाज के लिए पूर्ण आस्था नहीं हो पाती, जिसके कारण इलाज अधिक प्रभावी नहीं हो पाता। इसलिए यह आवश्यक है कि रोगी अपने पास से कुछ व्यय करे- अधिक अच्छा होगा कि यह व्यय सुदान में जाए। (ल) सामान्यतः उपचारक को एक दिन में पांच रोगियों से अधिक का उपचार नहीं करना चाहिए। यदि सम्भव हो सके एक दिन छोड़कर उपचार करना चाहिए तथा अध्याय ६ में वर्णित सप्ताह में एक बार स्व-प्राण चिकित्सा उपचार करना चाहिए, अन्यथा उसके स्वयं के रोग
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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