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________________ यह बात हर केस में लागू होती है चाहे रोगी उपचारक का बच्चा, स्त्री, मित्र कोई भी हो। इस सम्बन्ध में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखिए । इसी कारण से, जो उपचारक ऐसा नहीं कर पाते, वे अपने प्रियजनों का सक्षम उपचार करने में असमर्थ रहते हैं । (ण) शिशुओं, बच्चों, बहुत कमजोर और बड़े-बूढ़े रोगियों पर बहुत अधिक प्राणशक्ति का उपयोग न करें। शिशुओं व बच्चों के चक्र बहुत छोटे होते हैं और उनमें अधिक ताकत भी नहीं होती। बहुत कमजोर और बड़े-बूढ़ों के चक्र कमजोर होते हैं। अधिक मात्रा में, तीव्रता या सघनता से ऊर्जित होने पर इनके चक्र में संकुचन या खिंचाव होता है, अन्यथा उनको हानि पहुंच सकती है। ऐसे रोगियों को उपचार के दौरान बीच-बीच में आराम करवाते रहिये। शिशुओं व बच्चों का ऊर्जन विशेष तौर पर बहुत ही नरमी से किया जाना चाहिए, जैसी नरमी उनसे हाथ मिलाने में की जाती है । (त) यदि सौर जालिका चक्र का कदाचित, अधिक ऊर्जन हो जाता है, तो उसके परिणामस्वरूप चक्र में संकुचन या खिंचाव आने के कारण रोगी अचानक पीला पड़ सकता है या उसके सांस लेने में कठिनाई आ सकती है। ऐसी दशा में स्थानीय झाड़- बुहार कर सामान्य स्थिति करनी चाहिए । (थ) आंखों को या आंख के चक्रों को सीधे ऊर्जन न करें। बहुत नाजुक होने के कारण उन पर आसानी से प्राणशक्ति का धनापन आ सकता है, जिससे एक लम्बे समय में वे खराब हो सकती हैं। ये पिछले सिर के चक्र से ऊर्जित की जा सकती हैं। (द) हृदय को एवम् अगले हृदय चक्र को सीधे ऊर्जित नहीं करना चाहिये क्योंकि हृदय बहुत ही संवेदनशील एवम् कोमल होता है। इसको पिछले हृदय चक्र के माध्यम से हृदय व समस्त हृदय चक्र को ऊर्जित किया जाना चाहिये । ५.५९
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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