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________________ * अर्चि, आर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमप्रभ, अंक, स्फटिक और आदित्य ** यह संख्या मानुषियों का जितना प्रमाण है उससे तिगुना अथवा सात गुना है (यह कयन दो आचार्यों के मत की अपेक्षा से है)। ____ कल्पातीत देव तीर्थकरों के कल्याणकों में नहीं जाते, अपितु अपने स्थान से ही उनको शिर नवाकर नमस्कार करते हैं। प्रत्येक विमान में एक अकृत्रिम जिन भवन होता है। ऊर्ध्व लोक में समस्त अकृत्रिम जिन भवनों का प्रमाण (८४.६६,७०० +३२३) = ८४.६७,०२३ है। -------------- न स्वाध्यायत्परं तपः। अर्थात् - स्वाध्याय के बराबर कोई तप नहीं है। । स्वाध्याय के भेद वाचनापृच्छनाऽनुप्रेक्षाम्नायथर्मोपदेशाः। २५।। (तत्त्वार्थ सूत्र-अध्याय ६, आ. उमास्वाभीकृत) १. वाँचना - आत्मकल्याण हेतु निर्दोष ग्रन्थों का पढ़ना। २. पृच्छना - सत्पथ पर चलने के लिए प्रश्न पूछना। ३. अनुप्रेक्षा - निश्चित किए हुए वस्तु स्वभाव व पदार्थ स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना। ४. आम्नाय - चित्त रोककर शान्तिदायक पाठों को शुद्धतापूर्वक पढ़ना, याद करना, घोकना, मनन करना। ५. धर्मोपदेश- सत्य मार्ग एवम् पदार्थों का स्वरूप कहना तथा श्रोताओं में रत्नत्रय में प्रवृत्ति के लिए धर्मोपदेश देना, प्रवचन करना। १.४१
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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