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विषयों की आशा नहीं जिनके साम्य-भाव धन रखते हैं निज--पर के हित साधन में जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं ।। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुःख समूह को हरते हैं । । रहे सदा सत्रांग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उन्हीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे ।।
- मेरी भावना
गुरु किसे कहते हैं ?
गुरु शब्द का साधारण अर्थ है जो अन्धकार की ओर से प्रकाश की ओर लाये । गुरु शब्द की निरुक्ति में कहा है कि 'गु" शब्द अन्धकारपरक है और 'रु' शब्द उसका निवर्तक है। इस प्रकार अज्ञानान्धकार का निवारण करने से ही "गुरु" शब्द की साभिप्राय निष्पत्ति होती है। यही बात इस श्लोक में कही है :
"गु" शब्दस्त्वन्धकारे च "रु" शब्दस्तत्रिवर्तक । अन्धकारविनाशित्वाद "गुरु" रित्यभिधीयते ।।
जो संसाररूपी विकट वन में सभ्यवत्वरूपी आँखों से रहित भोले प्राणियों को सम्यज्ञानचक्षु प्रदान कर मुक्तिपथ की ओर प्रेरित करता है, वही सच्चा गुरु है। गुरु सर्वप्रथम अपने अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर देता है, और संसार- शरीर-भोगों से विरक्त होकर कर देता है शुरू चलना गुक्तिपथ की ओर।
वैय्यावृत्ति
परम उपकारी वीतरागी, दिगम्बर, महाज्ञानी, ध्यानी गुरुओं, अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं के शरीर में किसी प्रकार की व्याधि हो जाये और भी किसी कारण उनको कष्ट हो रहा हो, उस समय पूर्ण उपचार करके उनके रोग व कष्ट को मिटाना ही हमारा परम कर्तव्य है । इसी प्रकार संयम मार्ग पर चलने वाले पूज्य आर्यिकाएं, ऐलक क्षुल्लक क्षुल्लिका, प्रतिमाधारी श्रावकादि की भी सेवा करनी चाहिए । यह अन्तरङ्ग तप के अन्तर्गत आता है। दर्शन विशुद्धि भावना के साथ वैय्यावृत्य जो कि षोडशकारण भावना के अर्न्तगत है, जीव को तीर्थंकर जैसे सर्वोत्कृष्ट एवम् सर्वोच्च पद को भी प्रदान करने में समर्थ है।
वृद्ध माता-पिता, परिवारादि में किसी दीन दुखी की, किसी आपत्ति में, इन्द्रियाँ शिथिल होने पर उन सबकी भी सेवा अवश्य करनी चाहिए। यह भी एक प्रकार की वैय्यावृत्ति ही है ।
यही वैय्यावृत्ति इस पुस्तक का प्रथम प्रधान लक्ष्य है और इस प्रकरण में इस पुस्तक का यह पञ्चम भाग विशेषतः महत्वपूर्ण है ।