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गति से पैर को अधिक से अधिक समय में नीचे लावें। इस क्रिया को फिर बाएं पैर से दोहरायें, फिर दोनों पैरों से एक साथ। इस तमाम प्रक्रिया को तीन बार करें।
यह जठराग्नि तेज करता है और पेट सम्बन्धी रोग में लाभदायक है। (ङ) मूल बन्ध
पीठ के बल लेटें। पैरों को चौड़ा कर घुटनों को मोड़कर रखें। अपना ध्यान मूलाधार चक्र में रखें। फिर नाक से श्वास लेते हुए पेट में भरे, फैंफड़ों में हवा न जाये। फिर तीव्रता से रेचक करते हुए, गुदा का अधिक से अधिक अंदर की ओर संकोचन करें। फिर देर तक बाह्य कुम्भक करें। फिर धीरे-धीरे श्वास लेते हुए, गुदा को मूल स्थिति में ले आवें। इस प्रक्रिया को दस बार से प्रारम्भ कर अधिकतम पच्चीस बार तक करें। '
___ यह बवासीर में लाभदायक है। यह जठराग्नि को तेज करता है। ब्रह्मचर्य के लिए बंध महत्वपूर्ण है। (च) नावासन
पेट के बल लेट जायें तथा दोनों हाथों को पीछे फैलायें तथा पूरक करें। फिर दोनों पैरों और दोनों हाथों को एक साथ उठाते हुए रेचक करें तथा बाह्य कुम्भक करें। फिर पूवर्वत स्थिति में पूरक करते हुए आवें। इस प्रक्रिया को तीन बार करें। यह उच्च रक्तचाप में लाभदायक है। (छ) भुजंगासन
पेट के बल लेटें और हाथ सीधे रखें। ध्यान रहे कि सिर उत्तर दिशा में न हो। अपना ध्यान विशुद्ध चक्र में रखें। पूरक करते हुए सिर और धड़ को अधिक से अधिक ऊपर उठायें हाथ यथावत रहेंगे। फिर कुम्भक करें। तत्पश्चात् रेचक करते हुए. यथावत स्थिति में आकर दस सैकिन्ड विश्राम करें। इसी प्रक्रिया को तीन बार करें। अधिक बार नहीं करें। यह रीढ़ की हड्डी के लिये लाभदायक है।
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