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|१| भरत क्षेत्र व ऐरावत क्षेत्र के सभी छहों काल, किन्तु दुःषमा सुषमा |
आर्य खण्ड (कर्म भूमि) काल में ही मोक्ष जाना सम्भव है। २। भरतक्षेत्र व ऐरावत क्षेत्र के म्लेंच्छ | अवसर्पिर्णी काल में दुःषमा सुषमा काल | | खंडों एवम् विद्याधर श्रेणियों में | के प्रारम्भ से उसके अन्तपर्यंत हानि (दुःषमा सुषमा काल)
एवम् अत्सर्पिणी काल में इसका |
विपरीत, अर्थात वृद्धि होती रहती है। ३ हैमवत, हैरण्यत क्षेत्र
हानि वृद्धि से रहित सुषमा दुषमा | (जधन्य भोगभूमि)
काल। ४ | हरिवर्ष, रम्यक क्षेत्र
हानिवृद्धि से रहित सुषमा काल । (मध्यम भोगभूमि) || देव कुरु, उत्तर कुरु
हानिवृद्धि से रहित सुषमा सुषमा काल।। | | (उत्तम भोगभूमि) ६। विदेह क्षेत्र (कर्म भूमि)
दुःषमा सुषमा काल।
| यहाँ से मोक्ष गमन सदैव सम्भव है। मध्य लोक में पुष्कर द्वीप के उपरान्त असंख्यात समुद्र द्वीप हैं। मध्य लोक में समस्त द्वीप समुद्रों की संख्या २५ कोड़ा कोड़ी उद्धार पल्य (की रोम राशि) प्रमाण है। इनमें उल्लेखनीय आठवां नन्दीश्वर द्वीप है जिसका विस्तार १,६३,८४,००,००० योजन हैं। इसके चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि पर्वत हैं तथा प्रत्येक अंजनगिरि के चारों
ओर चार दधिमुख एवं आठ रतिकर पर्वत हैं, अर्थात एक-एक दिशा में तेरह पर्वत हैं, तथा चारों दिशाओं में ५२ पर्वत हैं। इन पर्वतों के शिखर पर उत्तम, रत्नमय अकृत्रिम १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े तथा ७५ योजन ऊँचे उत्कृष्ट ५२ जिन भवन हैं। इन मन्दिरों में चारों प्रकार के देव प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन के अष्टाविका पर्व में बड़ी भक्ति से रात्रि-दिन पूजा करते हैं। इन चैत्यालयों में स्थित सभी अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं को मेरा भक्तिपूर्वक नमस्कार होवे।
___इसके आगे ११वां कुण्डलवर द्वीप है जहां व्यन्तर देव रहते हैं तथा ४ जिन भवन स्थित हैं।
इसके आगे १३वां रुचकवर द्वीप है जहां ४ जिन भवन हैं। इस पर्वत पर ३२ प्रकार की दिक्कन्यायें रहती हैं जो तीर्थकर भगवान के जन्म कल्याणक के समय में जिनमाता की सेवा करती हैं।