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Ter स्लिाम में हार गुरु के समीप मन, वचन से अपनी भली प्रकार आलोचना करके पेय के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार (खाद्य, स्वाद्य, लेह्य) का त्याग कर देता है, उसे सल्लेखना नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है (वसुनन्दि श्रावकाचार २७१-२७२)। तथा जब मृत्यु का समय अति निकट आ जाता है
और शरीर की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है, तब वह श्रावक पेयजल का भी त्याग कर देता है। ऐसे श्रावक का मरण बालपण्डित मरण कहा गया है। (५) सल्लेखना के अतिचार
रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्राचार्य कहते हैं किजीवितभरणाशंसि भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः ।
सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्रैः समादिष्टाः ।।१२६ ।। भावार्थ- सल्लेखना मरण में समस्त त्याग करि केवल अपना शुद्ध ज्ञायक भाव का अवलम्बन करि समस्त देहादिकतैं ममत्व छाँड़ि सन्यास धास्या फेर हू जीवनेकी-मरने की वाँछा करना. मरने से भय करना, स्वजन पुत्र-पुत्री-मित्रनि में अनुराग करना, आगामी पर्याय में विषय भोग-स्वर्गादिक की वाँछा करना, ये क्रमशः जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्र स्मृति और निदान नामक अतिचार हैं। इनसे बचना चाहिए। पहले भोगे हुए सुख का स्मरण भी इन्हीं अतिचारों (मित्रस्मृति) के अन्तर्गत है। (६) मरण के प्रकार
__ भगवती आराधना में सत्ररह प्रकार के मरण बताये गये हैं, ये ही संक्षेपकरि पंचप्रकार करि कहे हैं:
पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिद थेव। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।।२६ ।।
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. यदि गुरु का संयोग न मिले. तो अपने परिणाम में ही भगवान पञ्च परमेष्ठी का ध्यान करि अरहन्सादिक
से आलोचना करे (रत्नकरण श्रावकाचार गाथा १२५. पृष्ठ ४२५ से उद्धृत)।
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