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________________ 1 अवस्था है। यह साधक दिन भर मन्दिर या किसी सूने स्थान में अथवा किसी मुनि संघ में रहकर आत्म-चिंतवन, स्वाध्याय आदि में ही अपना समय लगाता है। पांच समितियों का पालन करता है। यातायात के किसी साधन किसी सवारी का उपयोग नहीं करता। सिर और दाढ़ी-मूंछ के बालों का लौंच ही करता है, उस्तरे आदि द्वारा नहीं कतरवाता है। इस प्रकार सभी प्रकार की आकुलता - पराधीनता रहित होता जाता है, आत्म बल बढ़ता जाता है। यहाँ तक देश संयम पंचम गुणस्थान है। ५.० श्रावक प्रतिदिन अपने दुष्कर्मों की आलोचना, प्रतिक्रमण करने एवं श्री जिनेन्द्र भगवान एवं साधुओं की स्तुति - वन्दना करने से अपने पाप क्षय करके अन्ततः महाव्रत धारण करके श्री जिनेन्द्र भगवान की सम्पत्ति अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसी सन्दर्भ में कल्याणालोचना अर्थ सहित परिशिष्ट १.०६ प्रस्तुत है, जो भव्य जनों के द्वारा प्रतिदिन पाठ करने योग्य है । नोटः श्रावक धर्म का विशेष वर्णन "रत्नकरण्ड श्रावकाचार (श्री समन्तभद्राचार्य कृत)" एवं " उपसकाध्ययन आदि ग्रंथों मे देखें। महाव्रत (छठा - प्रमत्त गुणस्थान ) जब साधक अभ्यास के द्वारा आत्मानुभव का समय बढ़ाता है, तो आत्म बल की वृद्धि के साथ सकल संयम की विरोधी जो प्रत्याख्यानावरण कषाय होती है, उसका मंद-मंद होते अन्ततः अभाव हो जाता है, मात्र संज्वलन कषाय ही शेष रह जाती है। तब साधक आचार्य परमेष्ठी की अनुकम्पा से समस्त अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह त्यागपूर्वक मुनिव्रत धारण करता है तथा अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करता है। इनका संक्षिप्त विवरण परिशिष्ट १०७ में दिया है। ७. सल्लेखना (समाधि) साधक ( श्रावक / मुनि) जब जरा असाध्य रोगादि कारणों से मृत्यु के सम्मुख होता है, तो सल्लेखनापूर्वक धर्म की रक्षा करते हुए उच्च गति को प्राप्त होता है। इसका विवेचन परिशिष्ट १.१० में दिया है । सन्दर्भः जैन धर्म (परमात्मा होने का विज्ञान ) विहार, २ / १० अन्सारी रोड, दरियागंज, १.२२९ WA लेखक श्री बाबूलाल जैन, सन्मति नई दिल्ली- ११०००२
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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