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इस भूमिका में रहते हुए कम से कम छह महीने में एक बार आत्मानुभव अवश्य होता है, अन्यथा चौथा गुणरथान नहीं रहता। यहाँ साधक जब आत्मानुभव को जल्दी-जल्दी प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है तो देशसंयमरूप परिणामों की विरोधी जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय है, वह मंद होने लगती है। जब यह पन्द्रह दिन में एक बार आत्मानुभव होने की योग्यता बना लेता है, तो वह पांचवें गुणस्थान में पहुंचता है। ४.३ पांचवां गुणस्थान (संयमासंयम अथवा देश संयम)
यहां अंतरंग में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होता है, त्याग के भाव होते हैं और बहिरंग में अणुव्रतादिक बारह व्रतों को धारता है, तथा ग्यारह प्रतिमाओं के अनुरूप उत्तरोत्तर आचरण क्रम से शुरू होता है। (१) दर्शन प्रतिमाः अब सप्त व्यसन का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है। जो भी कषाय बढ़ने के साधन हैं उनका त्याग करता है। जीव-रक्षा के हेतु ऐसे कारोबार से हटता है जिसमें जीव हिंसा अधिक होती हो। रात्रि भोजन का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता है और खाने-पीने की चीजों को जीव हिंसा से बचने के लिए देख-शोधकर ग्रहण करता
है।
(२) व्रत प्रतिमा: पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार बारह व्रतों का पालन इस प्रतिमा से शुरू होता है। यद्यपि साधक की दृष्टि समस्त कषाय का अभाव करने की है तथा आत्मबल उतना न होने के कारण जितना आत्मबल है उसी के अनुसार त्याग मार्ग को अपनाता है, और जितनी कषाय शेष रह गई है उसे अपनी गलती समझता है। उसके भी अभाव के लिये अपने आत्मबल को बढ़ाने की चेष्टा करता है, और आत्म बल की वृद्धि चूंकि आत्मानुभव के द्वारा ही सम्भव है, अतः उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। जितना-जितना स्वावलम्बन बढ़ता है उतना--उतना परावलम्बन घटता जाता है। बहिरंग में परावलम्बन को घटाने की चेष्टा भी वस्तुतः स्वावलम्बन को बढ़ाने के लिये ही की जाती है। जैसे कि चलने के लिये कमजोर आदमी द्वारा पहले लाठी का सहारा लिया जाता है, फिर उसके सहारे से जैसे-जैसे वह चलता है, वैसे-वैसे सहारा छूटता जाता है। आत्मा को यद्यपि किसी सहारे की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं में परिपूर्ण है, तथापि आत्मबल की कमी है। जितना पर का अवलम्बन है उतनी ही पराधीनता है, कमी है। अतः आत्मबल को बढ़ाता है तो पराधीनता घटती जाती है।
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