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________________ क्रम से सांगत लोक प्रमाण कापायाध्यतसागस्थानों के हो जाने पर भी वही जघन्यस्थिति स्थान होता है। जो क्रम जघन्य स्थितिस्थान में बताया वही क्रम एक-एक समय अधिक द्वितीयादि स्थितिस्थानों में समझना चाहिए। तथा इसी क्रम से ज्ञानावरण की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक समस्त स्थिति स्थानों के हो जाने पर और ज्ञानावरण के स्थितिस्थानों की तरह क्रमसे सम्पूर्ण मूल वा उत्तर प्रकृतियों के समस्त स्थितिस्थानों के पूर्ण होने पर एक भावपरिवर्तन होता है। तथा इस परिवर्तन में जितना काल लगे उसको एक भाव परिवर्तन का काल' कहते हैं। इस प्रकार संक्षेप में इन पाँच परिवर्तनों का स्वरूप यहां पर कहा है। इनका काल उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अनन्तगुणा है। नाना प्रकार के दुःखों से आकुलित पांच परिवर्तनरूप संसार में यह जीव मिथ्यात्व के निमित्त से अनन्त काल से भ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण के कारणभूत कर्मों को तोड़कर मुक्ति को प्राप्त करने की जिनमें योग्यता नहीं है उनको अभव्य कहते हैं और जिनमें कर्मों को तोड़कर मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता है उनको भव्य कहते हैं। यह जीव अनादि से अब तक अनन्त बार पंच परावर्तन कर चुका है। सभी परिवर्तनों में जहां क्रम भंग होगा वह गणना में नहीं आवेगा। १.२०१
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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