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प्राक्कथन
हमारे आचार्यों की कृपा से जैन साहित्य आजकल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसका श्रेय बीसवीं सदी के प्रमुख चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्य श्री १०८ शान्ति सागर जी को जाता है, जिनकी कृपा से आज अनेक पिच्छियां दृष्टिगोचर आती हैं। सभी अनुयोगों के ग्रंथ उपलब्ध हैं, इसलिए अध्यात्म के विषय में मुझ जैसे तुच्छ बुद्धि के व्यक्ति को कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं थी, जबकि हमारे सौभाग्य से बड़े-बड़े आचार्यों द्वारा रचित महान ग्रंथ उपलब्ध हैं। फिर भी प्राण ऊर्जा द्वारा ध्यान के उपयोग के प्रासंगिकता में, मुझ जैसे अल्पज्ञों जिनको स्वयं के विषय में ही ज्ञान नहीं है कि मैं कहां हूं, कौन हूं, कहां से आया हूं और मेरा क्या भविष्य है के बोध व सहज सन्दर्भ हेतु इन प्रश्नों के उत्तर विभिन्न शास्त्रों के आधार से खोजने का प्रयत्न किया गया है।
चूंकि धर्म साधन का आधार शरीर है, अतएव उसकी शारीरिक एवम् मानसिक स्वस्थता आवश्यक है । इसलिए भाग २ में संक्षिप्त शरीर विज्ञान तथा भाग ३ में शरीर रक्षा कैसे करें- इनका वर्णन दिए गये हैं ।
"प्राण ऊर्जा" यह विषय दिगम्बर जैन समाज में अधिकांश लोगों के लिए नया है तथा अनेकों ने इसका शायद नाम नहीं सुना। यह कौन सा विज्ञान है। हम सभी में जो प्राण ऊर्जा शरीर है, उसकी क्या रचना है आदि का विवरण भाग ४ में दिया है। प्राण ऊर्जा शक्ति द्वारा प्राण ऊर्जा शरीर / भौतिक दृश्यमान शरीर को कैसे स्वस्थ्य रखा जाए तथा और इसके अन्य उपयोग भाग ५ में दिया है। इस प्राण ऊर्जा को अध्यात्म के क्षेत्र में कैसे उपयोग किया जाए तथा आत्मोन्नति हेतु पंच परमेष्ठी के ध्यान में कैसे इसका उपयोग किया जाए, यह विवरण भाग ६ में दिया गया है।
प्राण ऊर्जा द्वारा उपचार के प्रशिक्षण चार प्रकार के हैं:
(१) प्रारम्भिक व माध्यमिक उपचार एवं स्व- उपचार, दूरस्थ उपचार ( २ ) उन्न्त प्राण चिकित्सा (३) मनो रोग प्राण चिकित्सा तथा ( ४ ) रत्नों द्वारा प्राण उपचार चिकित्सा | मैंने इन चारों का प्रशिक्षण वर्ष १६६७ व १६६८ में लिया था। प्रारम्भिक