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________________ मेरी आत्मा से अलग हैं और इसलिये मेरी आत्मा को न तो ये जला सकती है और न कुछ हानि पहुँचा सकती है। मैं मात्र ज्ञाता- दृष्टा बनकर उदासीन भाव से समस्त कर्मों को एवम् नोकर्म शरीर को जलता हुआ देख रहा हूँ और भस्म (राख) बनता हुआ देख रहा हूँ| अब थोड़ी देर में जब समस्त कर्म और नोकर्म शरीर जल गया, तो जलने योग्य पदार्थ के अभाव में अग्नि धीरे-धीरे शान्त हो गयी। (ग) वायु धारणा अब आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महावेग वाले और महाबलवान ऐसे वायुमण्डल का चिन्तवन करें। तत्पश्चात् उस पवन को ऐसा चिन्तवन करें कि वह देवों की सेवा को चलायमान करता है, मेरू पर्वत को कम्पायमान करता है, मेघों के समूह को बिखेरता हुआ, समुद्र को क्षोभरूप करता हुआ तथा लोक के मध्य में गमन करता हुआ, ५ दिशाओं में स्वय, राँगा, स्वाँमा किन संचरता हुआ, बह रहा है। इस प्रबल वायुमण्डल ने जो कर्म और शरीरादिक की भरम है, उसको तत्काल उड़ा दिया। तत्पश्चात् इस वायु को स्थिर रूप चिन्तवन करके शान्तरूप करें। (घ) वारुणी (जल) धारणा वायु धारणा के पश्चात् ध्याता इन्द्रधनुष, बिजली, गर्जनादि चमत्कार सहित मेघों के समूह से भरे आकाश का ध्यान करें। उन मेघों के समूह से पं पं पं शब्द सहित जल की मोटी-मोटी धारा बरस रही है और उससे अवशेष भस्म बहकर चली गई, ऐसा चिन्तवन करें। (ड) तत्त्व धारणा अब उस स्थान पर समस्त कर्मों व नोकर्मों-शरीर के नष्ट हो जाने से मात्र निर्दोष आत्मा ही शेष रही। आत्मा के ऊर्ध्व गति के स्वभाव होने के कारण और उससे अब कोई बन्धन सम्बद्ध न होने के कारण, वह एक समय में सिद्ध शिला के ऊपर सिद्धलोक में लोकाग्र पर तनुवातवलय में विराजित हो गई और आगे धर्म द्रव्य के अभाव में वहीं पर स्थित हो गई। अब चिन्तवन करें कि मेरी आत्मा संसाररहित. जन्मरहित, जरारहित, मरणरहित है। मेरी आत्मा मिथ्यात्वरहित, प्रमादरहित, मनोयोगरहित, वचनयोगरहित, काययोगरहित है। मेरी आत्मा कामरहित, क्रोधरहित, मानरहित, मायारहित, लोभरहित, हास्यरहित, रतिरहित, अरतिरहित, भयरहित, १.१६७
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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