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यह जीव अनादिकाल से इस संसार में है और निगोद (एकेन्द्रिय) शरीर को धारण करता आया है। यद्यपि निगोद सब जगह पाये जाते हैं, ऐसा कोई स्थान लोक में नहीं है जहां न पाये जाते हों, तथापि सातों नरकों के नीचे खास निगोदों का स्थान है। निगोद में असंख्य स्कन्ध पाये जाते हैं। हर एक स्कन्ध में असंख्य अण्डर होते हैं हर एक अण्डर में असंख्य आवास बने हैं। हर एक आवास में असंख्यं पुलवि हैं और हर एक पुलवि में असंख्य शरीर निगोद जीवों के हैं। इनमें से हर एक शरीर में अनन्तानन्त निगोद जीव पाये जाते हैं। असंख्य स्कन्धों में हर एक स्कन्ध का यही हिसाब है। इस तरह अनन्तानन्त जीव हर स्कन्ध में ऐसे भी पाये जाते हैं, जिन्होंने अब तक त्रस पर्याय भी प्राप्त न की हो। ऐसे ही जीव ने अनन्तकाल बिताया है। (चित्र १.०६)
निगोद के दुःख और स्थावर पर्याय एक स्वास में अठ-दस बार, जन्म्यो मर्यो दुःख भार । निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।४।।
(छहदाला) निगोद में जीव को दुःख ही दुःख मिलता है, वहाँ वह एक श्वास में ही अठारह बार जन्म-मरण करता है और ऐसी निगोद परम्परा में दुःखों को अनन्तकाल तक सहन करता है। इसके पश्चात दैवयोग से यह जीव अन्य स्थावर पर्यायें भी धारण करता है- जैसे पृथ्वी, जल, वायु, तेज और वनस्पतिकायिक जीव। ये भी सब एकेन्द्रिय जीव की पर्यायें हैं। (चित्र १.१०)
त्रस की दुर्लभता और उसके दुःख दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी, त्यों पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरि-धरि मर्यो सही बहुपीर ।।५।।
जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न, जिससे मन की सभी इच्छित वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं, प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार स्थावर जीव का अपने से उच्च योनि (वस योनि) प्राप्त करना कठिन है। यदि जीव प्रयत्न कर त्रस योनि में पहुँच भी जाता है तब भी उसे शान्ति नहीं मिलती, दुःखमय संसार में वह दुःख से दूर नहीं भाग सकता। त्रस पर्याय पाने पर भी वह बार-बार द्विइन्द्रिय जैसे लट, त्रिइन्द्रिय जैसे चींटी, चौइन्द्रिय जैसे भौंरा आदि विकलत्रय शरीर धारण करता है, इन पर्यायों में भी जीव दुःख ही पाता है, क्योंकि संसार ही दुःखमय है। (चित्र १.११)
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