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सण्णाण - रयण दीवं, लोयालोयप्पयासणं- समत्थं । पणमामि सुमइ समिं सुमइकरं भव्व- संघस्स । । ५ ।। लोयालोय
पयासं
पउमप्पह - जिणवरं,
णमंसित्ता ।।६।।
संसारण्णव- महणं, तिहुवण - भव्वाण पेम्म पुह चलणं । संदरिसिय सयल, सुपासणाहं णमंसामि ।।७।।
कुमुदेक्क चंद, हि पणामिदूण
भव्व चंदम्पह- जिणवरं
अध्याय ३
मैं कहाँ से आया हूँ
मङ्गलाचरण
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अर्थ - जिनका सम्यज्ञान रूपी रत्नदीपक लोकालोक के प्रकाशन में समर्थ है एवम् जो ( चतुर्विध) भव्य संघ को सुमति देने वाले हैं, उन सुमतिनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ । । ५ । । लोकालोक को प्रकाशित करने वाले पद्मप्रभ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ || ६ || तीनों लोकों के भव्य जनों के स्नेहयुक्त चरणों वाले, समस्त पदार्थ के दर्शक और संसार - समुद्र के मंथनकर्ता सुपार्श्वनाथ स्वामी को मैं नमन करता हूँ ।।७।। भव्यजनरूप कुमुदों को विकसित करने के लिए अद्वितीय चन्द्रस्वरूप चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र को मैं नमन करता हूँ | ८ ॥
(१) संसार भ्रमण
इस संसार में जिसका कोई आदि नहीं है, अर्थात् अनादि काल से मैं सम्यक्त्व के अभाव में भिन्न-भिन्न गतियों में भटकता रहा हूँ तथा मोह रूपी तेज शराब पीता रहा हूँ, जिससे अपने स्वरूप को भूलकर व्यर्थ ही इन गतियों (चारों गतियों) में भटकता आ रहा हूँ। इस संसार भ्रमण की बहुत लम्बी कहानी है, तथापि कुछ थोड़ी सी जैसी श्री गुरु ने वर्णन की है, कहता हूँ ।
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