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________________ अपेक्षा भिन्न-भिन्न शरीर आदि के आश्रित रहने से अनेक भी कही जाती है। वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा जानने के योग्य होने से स्वसंवेद्य तथा इन्द्रियजनित ज्ञान की अविषय होने से अवैद्य भी कही जाती है। वह निश्चय से विनाश रहित होने से अक्षर तथा अकारादि अक्षरों से रहित होने के कारण अथवा व्यवहार की अपेक्षा विनष्ट होने से अनक्षर भी कही जाती है। वही आत्मज्योति उपमारहित होने से अनुपम, निश्चयनय से शब्द का अविषय होने से अनिर्देश्य (अवाच्य), सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादि प्रमाणों का विषय न होने से अप्रमेय तथा आकुलता से रहित होने के कारण अनाकुल भी है। इसके अतिरिक्त चूंकि वह मूर्तिक समस्त बाह्य पदार्थों के संयोग से रहित है अतएव शून्य तथा अपने ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण होने से पूर्ण भी मानी जाती है, अथवा परकीय द्रव्यादि की अपेक्षा शून्य और स्वकीय द्रव्यादि की अपेक्षा पूर्ण भी मानी जाती है। वह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा विनाश रहित होने से नित्य तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य भी कही जाती है। वह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति चूंकि शरीर, आलम्बन, शब्द तथा और भी अन्यान्य विशेषणों से रहित है; अतएव वह वचन एवं मन के भी अगोचर हैं। विवेकीजन को कर्म तथा उसके कार्यभूत रागादि भी छोड़ने योग्य हैं और उपयोगरूप एक लक्षणवाली उत्कृष्ट ज्योति ग्रहण करने के योग्य है। जो चैतन्य है वही मैं हूं। वही चैतन्य जानता है और वही चैतन्य देखता भी है । निश्चय से वही एक चैतन्य उत्कृष्ट है। मैं स्वभावतः केवल उसी के साथ एकता को प्राप्त हुआ हूँ । जो भव्य जीव इस आत्मतत्व का बार-बार अभ्यास करते हैं, व्याख्यान करते हैं, विचार करते हैं, तथा सम्मान करते हैं; वे शीघ्र ही अविनश्वर, सम्पूर्ण, अनन्त सुख से संयुक्त एवं नौ केवललब्धियों (केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र) स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं । (१३) मैं कौन हूं ? ( क ) अनन्तानन्त अलोकाकाश के बहु मध्य भाग में लोकाकाश, जगत अथवा त्रिलोक में अवस्थित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक छह द्रव्यों में से मैं जीव नामक द्रव्य हूँ। मेरे अतिरिक्ति अन्य जीव भी विद्यमान हैं। (ख) निश्चय नय से मैं शुद्ध ज्ञान - दर्शन स्वभाव वाला हूँ और चैतन्य प्राण से पहले जी आया हूँ, जीता हूँ व भविष्य में जीऊंगा। मैं अमूर्तिक हूँ — १. १०४
SR No.090007
Book TitleAdhyatma aur Pran Pooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhpatendra Dev Jain
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1057
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Yoga
File Size15 MB
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