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अर्थ --
नेत्रद्वन्द्वरुजोविनाशनकरं गात्रं पवित्रीकरम् । वातोत्पित्तकफादिदोषरहितं गात्रं पवित्रं भवेत्।। कामालाशपाउरोगनियाग्राहक्षयंकारि तत्। श्री मत्पावजिनेन्द्रपादयुगलस्नानस्य गन्धोदकम्।।५।। श्रीमद् देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के चरण युगल के स्नान का पवित्र गन्धोदक दोनों नेत्रों के विकारों को दूर करने वाला, शरीर को पवित्र करनेवाला. वात-पित्त-कफादि दोषों को दूर करने वाला तथा कामल, क्षय, कुष्ठादिक विषम और अलंध्य रोगों का नाश कर, नीरोग करने वाला होता है।।५।। घातिवातविघातजातविपुलं श्रीकेवलज्योतिषो। देवस्यास्य पवित्रगात्रकलनात् पूतं हितं मङ्गलम्।। कुर्याद्भव्यभवार्तिदावशमनं स्वर्मोक्षलक्ष्मीफलम्। प्रोद्यद्वर्मलताभिवर्धनमिदं सद्गन्धगन्धोदकम्।।६।। घातिया कर्मों का नाश करने वाले और केवल ज्ञान ज्योति से प्रकाशमान श्री जिनेन्द्र देव के शरीर से स्पर्शित यह पवित्र, हितकारी, मंगलकारी गंधोदक भव्य जीवों के संसार सम्बन्धी दोषों को नष्ट कर मोक्ष लक्ष्मी रूपी फल को देने वाला और धर्म लता की निरन्तर वृद्धि कराने वाला है ।।६।।
अर्थ -
निःशेषाभ्युदयोपभोगफलवत्पुण्यांकुरोत्पादकम्। धृत्वा पंक निवारकं भगवतः स्नानोदकं मस्तके।। ध्यातौ विश्वमुनीश्वरैरभिनुतौ प्रेक्षावतामर्चितौ। इन्द्राद्यैर्मुहुरचितौ जिनपतैः पादौ समभ्यर्चयो ।।७।। ।। ॐ शांति: शांतिः शांतिः । मंगलं भूयात् ।।श्रीः ।। हे प्रभो, आपके स्नान का यह जल मस्तक पर धारण करने से समस्त पाप मल अथवा कर्म मल अपना प्रभाव खो देते हैं और वे पल भर में नष्ट हो जाते हैं। यह विश्व के समस्त अभ्युदयों, भोगों और उपभोगों को देकर, सातिशय पुन्य को उत्पन्न कराने वाला है। श्री जिनेन्द्र देव के
अर्थ -
६.१३