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है अर न्यायके बलतेभी ऐसैंही सिद्ध होय है जाते जे संसारके भ्रमणते रहित होय तेही अन्यकै संसारका भ्रमण मेटनेकू कारण होय जैसें जाकै धनादि वस्तु होय सो ही अन्य धनादिके दे अर आप दरिद्री होय तब अन्यका दरिद्र कैसैं मेटैं, ऐसें जानना। ऐसैं जिनकू संसारके विघ्न दुःख मेटनें होय अर संसार का भ्रमणका दुःखरूप जन्म मरणते रहित होना होय ते अरहतादिक पंचपरमेष्ठी का नाम मंत्र जपो, इनिके स्वरूपका दर्शन स्मरण ध्यान करो, ताक् शुभ परिणाम होय पापका नाश होय. सर्व विघ्न टलैं परंपराकरि संसारका भ्रमण मिटै कर्मका नाश होय मुक्तिकी प्राप्ति होय, ऐसा जिनमत का उपदेश है सो भव्य जीवनिकै अंगीकार करने योग्य है।
२. ध्याता, ध्यान और ध्येय
उक्त कथन से स्पष्ट है कि जिन आज्ञानुसार पंच परमेष्ठी के नाम का मंत्र जपना, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण एवम् ध्यान के माध्यम से परम्परा से निर्वाण प्राप्ति होती है एवम् ये ही परमगुरु एवम् जगद्गुरु हैं। अर्थात, ध्याता- भव्य संसारी जीव, ध्यान- पंचपरमेष्ठी तथा ध्येय- पंच परमेष्ठी हैं। जब आप इस ध्यान के प्रसंग में पंच परमेष्ठी के गुणों को अपने आत्मा के अप्रकट गुणों से तुलना करेंगे, तो पाएंगे कि आपकी शुद्ध आत्मा ही पंच परमेष्ठी का स्वरूप है। इस ध्यान में जब गहरे उतरेंगे, तो स्व आत्मा और पंच परमेष्ठी के ध्यान में इतना मग्न हो जाएंगे कि संसार का भान ही नहीं रहेगा एवम् आपने आत्मा के आनन्द में आत्म-विभोर हो जाएंगे, तब पंच परमेष्ठी अथवा स्व-आत्मा के ध्यान में चरम अवस्था में ध्याता, ध्यान और ध्येय का भेद समाप्त हो जाएगा, अर्थात आत्मा द्वारा, शुद्ध आत्मा का ध्यान करके. शुद्धात्मा ही ध्यान का लक्ष्य हो जाएगा। यह प्रशस्त मार्ग व्यवहार रत्नत्रय से निश्चय रत्नत्रय की ओर ले जाकर, अर्थात परम्परा से परोक्ष रूप से प्रत्यक्ष रूप द्वारा, असंख्यात/अनन्त कर्मों की निर्जरा से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कराकर मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। ३. ध्याता के अधिकारी एवम् प्रस्तुतकर्ता की लघुता
इस ध्यान के अधिकारी वास्तव में हमारे परम पूज्य निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हैं। पाठक को इनके द्वारा प्राप्त आज्ञा, मार्गदर्शन एवम् उपदेश को सर्वोपरि मानकर श्रावक अवस्था से ही ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। प्रस्तुतकर्ता अत्यन्त बुद्धिहीन एवम् अल्पज्ञ है और ध्यान के प्रकरण में उसका कुछ भी लिखना इस प्रकार है जैसे
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