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अर्थ --- हे मुने ! तू पंच गुरु कहिये पंच परमेष्ठी हैं तिनहिं ध्याय, इहां “अपि शब्द है सो शुद्धात्मस्वरूपके ध्यानकू सूचै है, ते पंच परमेष्ठी कैसे हैं – मंगल कहिये पाप का गालण अथवा सुखका देना अर चउशरण कहिये च्यार शरण अर लोक कहिये लोकके प्राणी तिनिकरि अरहंत सिद्ध साधु केवलि प्रणीत धर्म ये परिकरित कहिये पारंवारित है युक्त है, बहारे नर सुर विद्याधरनिकरि महित हैं पूज्य हैं लोकोत्तम कहै हैं, बहुरि आराधन के नायक हैं, बहुरि वीर हैं कर्मनिके जीतनेंकू सुभट हैं तथा विशिष्ट लक्ष्मांक प्राप्त हैं तथा देहैं, ऐसे पंच परम गुरुकुं ध्याय ।।
भावार्थ - इहां पंच परमेष्ठीकू ध्यावनां कह्या तहां ध्यानविर्षे विध्नके निवारनेवाले च्यार मंगलस्वरूप कहे ते येही हैं, बहुरि च्यार शरण अर लोकोत्तम कहे हैं ते भी इनिहीकू कहे हैं; इनिसिवाय प्राणीकू अन्य शरणां रक्षा करनेवालाभी नाहीं है, अर लोकविर्षे उत्तमभी येही हैं, बहुरि आराधना दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये च्यार हैं ताकै नायक स्वामीभी येही हैं, कर्मनिषं जीतनेवालेभी येही हैं। तातें ध्यानके कर्त्ताकू इनिका ध्यान श्रेष्ठ है, शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनिहीके ध्यानतें होय है तातें यह उपदेश है। १२४ ।।
इसी अष्ट पाहुड में मोक्षपाहुड़ में (पृष्ट ३५६) में वर्णन है कि आगैं आचार्य कहै हैं जो - अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं ते भी आत्माविर्षे ही हैं तातें आत्मा ही शरण
गाथा - अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेठ्ठी।
ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०४।। संस्कृत - अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंच परमेष्ठिनः ।
ते अपि स्कुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुट मे शरणं ।।१०४ ।। अर्थ - अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय अर साधु ये पंच परमेष्ठी हैं ते भी आत्माविर्षे ही चेष्टारूपहैं आत्मा की अवस्थाहैं तातें मेरै आत्माहीका शरणा है, ऐसैं आचार्य अभेदनय प्रधानकरि कह्या है।। भावार्थ - ये पांच पद आत्माहीके हैं जब यह आत्मा घातिकर्मका नाश करै है तब अरहंतपद होय है, बहुरि सो ही आत्मा अघातिकर्मनिका नाशकरि निर्वाणकू प्राप्त होय