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हभाग -६
अध्यात्म और प्राण-ऊर्जा
मङ्गलाचरण कमठोपसग्ग-दलणं, तिहुयण-भवियाण मोक्ख देसयरं ।
पणमह पास-जिणेस, घाइ-चउक्कं विणासयरं । ।२३।। अर्थ- कमठकृत उपसर्ग को नष्ट करने वाले, तीनों लोकों सम्बन्धी भव्यों के लिए मोक्ष के उपदेशक और घाति-चतुष्टय के विनाशाक पाव-जिनेन्द्र को नमस्कार करो।।२३।। अध्याय १ - भूमिका १. रत्नत्रय, ध्यान और पंच परमेष्ठी
माग १ में इनका वर्णन दिया गया है। ध्यान का विशेष वर्णन उसके अध्याय ५ में दिया है। उन सबको यहाँ न दोहराते हुए, वहाँ वर्णित धर्म ध्यान के अर्न्तगत आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय भेदों की ओर पाठक का ध्यान आकर्षित करना है। प्रथम तीन प्रभेद श्रावक व मुनि दोनों कर सकते हैं, किन्तु संस्थान विचय के अर्न्तगत पिण्डरथ, पदस्थ, रूपस्थ एवम् रूपातीत ध्यान के अधिकारी निर्ग्रन्थ मुनि हैं। इनमें से श्रावक अभ्यास अथवा प्रशिक्षण हेतु पिण्डस्थ धर्मध्यान कर सकते हैं, जिसका विस्तृत वर्णन भाग १ के अध्याय ५ के क्रम १२ पर दिया है।
जो ध्यानविर्षे परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है तिसस्वरूपरूपके आराधनेंविर्षे नायक प्रधान पंच परमेष्ठी हैं तिनिकू ध्यावनां, यह अष्ट पाहुड़ में भावपाहुड़ में परम पूज्य श्री १०८ कुन्दकुन्दाचार्य उपदेश करै हैं :गाथा - झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।
णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ।। १२४ ।। संस्कृत - ध्याय पंच अपि गुरून् मंगलचतुः शरपरिकरितान् ।
नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान् ।। १२४ ।।