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हेमचन्द्र की व्याकरण रचनाएँ
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भी बताते हैं । इस प्रकार उन्होंने भरत, जयदेव, स्वयम्भू, के नामों का उल्लेख किया है । दोहा जाति का लक्षण कहते समय हेमचन्द्र विरहाङक के समान अपना मत देते हैं।
श्री ए०बी० कीथ ने 'संस्कृत साहित्य के इतिहास' में हेमचन्द्र के छन्दोनुप्रशासन के विषय में अपना मत प्रकट किया है कि 'अलङकार शास्त्र के प्राचीन सम्प्रदाय में यमकों पर विस्तार से विचार किया गया है और वे प्राकृत में बहधा प्राप्त होते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत में प्रायः प्रयुक्त होने वाले गलतिक छन्द के लिए पक्तियों के अन्त में यमकों के प्रयोग को निर्धारित कर दिया है । उन्होंने अपने छन्दोऽनुशासन में इसका उल्लेख किया है और इसे अनुप्रास है रूप से यमक में भिन्न बतलाया है। उनके छन्दोऽनुशासन से प्राकृत छन्दों पर प्रकाश पड़ता है । हेमचन्द्र ने अपभ्रश के कुछ गीति पद्यों का उदाहरण दिया है । वे बहुत कुछ 'हाल' रचित पद्यों के समान ही है । एक युवती याचना करती है कि उसका प्रेमी उसके पास लौटा लाया जाय, अग्नि घर को चाहे भस्मसात करदे, पर मनुष्यों को अग्नि तो अवश्य ही चाहिये । एक अन्य स्त्री को प्रसन्नता है कि उसका पति वीरता-पूर्वक युद्ध भूमि में मारा गया, यदि वह अपमानित होकर लौटता तो पत्नी के लिए लज्जा की बात होती । व्यास एवं अन्य महषियों के वचनों द्वारा माता का आदर करने के लिए बड़ी अच्छी तरह से उपदेश दिया गया है। नम्रतापूर्वक भक्ति के साथ माता के चरणों पर गिरने को वे गङगा के पवित्र जल में स्नान करने के तुल्य मानते हैं।
यद्यपि संस्कृत साहित्य की दृष्टि से छन्दोऽनुशासन के रूप में आचार्य हेमचन्द्र की देन विशेष प्रतीत नहीं होती, फिर भी प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से उनकी देन उल्लेखनीय है । संस्कृत-साहित्य की दृष्टि से भी आचार्य हेमचन्द्र एक बड़े संग्राहक कहे जा सकते हैं । श्री एच.डी. वेलनकर द्वारा सम्पादित, भारतीय विद्या-भवन द्वारा प्रकाशित, 'छन्दोऽनुशासन' कीभूमिका में मुनि-जिनविणयजी ने वाङ्गमय 'छन्दोऽनुशासन' का उचित एवं सार्थक मूल्याङ्कन किया है । वे लिखते हैं, 'संस्कृत में आज तक जितने भी छन्दो रचना विषयक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं उन सबमें कलि-काल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र विरचित छन्दोऽनुशासन नामक ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा कथन करने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शब्दानुशासन; काव्यानुशासन, छन्दोऽनुशासन, लिङ्गानुशासन-ये चार अनुशासन तथा दो द्वयाश्रय काव्य १ 'भल्ला हुआ जु मारिआ वहिणी म्हारा कन्तु । लज्जेणं तुवयं सिअहं जइ भग्गा घर एं तु॥