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प्रथम अधिकार काल होता है। तथा विशिष्ट पुण्यशाली गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि प्रधान पुरुषों के प्रश्नानन्तर के कारण अन्य काल में भी प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती है । वह प्रभु की दिव्यध्वनि, सारे श्रेष्ठ भव्य जीवों के लिए उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दश लक्षण धर्म का कथन करती है।
अथवा जिसमें जिज्ञासू ज्ञाता गणधर देव के प्रश्नानुसार उसके उत्तर वाक्य रूप जीवादि वस्तु का कथन है वा वस्तु स्वभाव रूप धर्म का कथन है वह ज्ञातृ कथांग वा नाथ कथांग है।
अथवा ज्ञाता तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि महापुरुषों की धर्मानुबन्धी कथा एवं उपकथाओं का कथन करती है वही नाथ कथांग वा ज्ञातृधर्म कथांग है ।। ३०-४०-४१-४२-४३-४४ ।।
विशेषार्थ ज्ञातृकथा ( नाथ कथा) नाम का छट्ठा अंग पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा सिद्धान्तों का विधि से स्वाध्याय की प्रस्थापना के लिए तीर्थंकरों की धर्म देशना का तथा सन्देह को प्राप्त गगधर देव के संशय को दूर करने की विधि का और अनेक प्रकार की कथा एवं उपकथाओं का वर्णन करता है। ___ इस ज्ञातृ कथांग के पाँच लाख छप्पन हजार पद हैं। इसकी श्लोक संख्या अट्ठाईस नील, चालीस खरब, इकावन अरब, चौरासी करोड़, पिचानबे लाख, चौवन हजार है । और वर्ण संख्या अट्ठानवे नील, छयानबे खरब, उन्नसठ अरब, अठारह करोड़, सत्तावन लाख, अट्ठाईस हजार है। ॥ इस प्रकार ज्ञातृकथांग नाम छठे अंग का कथन समाप्त ।।
उपासकाध्ययनांग का कथन सत्तरिसहस्स लक्खा एयारह जत्थुवासयज्झयणे । उत्तं पयप्पमाणं जिणेण तं णमह भवियजणा ॥ ४५ ॥
सप्ततिसहस्र लक्षाणि एकादश यत्रोपासकाध्ययने । उक्तं पदप्रमाणं जिनेन तं नमत भव्यजनाः।
उपासकाध्ययनांग के विषय का वर्णन दसणवयसामाइयपोसहसचित्तरायमत्ते य । बंभारंभपरिग्गहअणुमणमुद्दिट्ट देसविरदेदे ॥ ४६ ॥