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अंगपण्णत्ति
करोड़, त्रेसठ लाख, चौहत्तर हजार ( १८३९१८४६३७४००० ) प्रमाण है। अक्षर संख्या का प्रमाण अट्ठावन नील, पिच्यासी खरब, उन्चालीस अरब, आठ करोड़, उनचालीस लाख, अड़सठ हजार (५८८५९०८३९६८०००) ॥ इस प्रकार सूत्र कृतांग का कथन समाप्त हुआ।
स्थानांग का प्ररूपण बादालसहस्सपदं ठाणंगं ठायभेयसंजुत्तं । चिट्ठति ठाणभेया एयादि जत्थ जिणविट्ठा ॥ २३ ॥
द्वाचत्वारिंशत्सहस्रपदं स्थानाङ्ग स्थानभेदसंयुक्तं ।
तिष्ठन्ति स्थानभेदा एकादयो यत्र जिनदृष्टाः॥ जिसमें व्यालीस हजार पदों के द्वारा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित जीव, अजीव आदि के एक से लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थान भेदों से संयुक्त स्थान भेद रहते हैं। अथवा स्थान भेदों का कथन किया जाता है वह स्थानांग है ॥ २३ ॥ संगहणयेण जीवो एक्को ववहारदो दु संसारिओ मुत्तो। सो तिविहो पुणुप्पादव्वयधोव्वसंजुत्तो ॥२४॥
संग्रहनयेन जीव एको व्यवहारतस्तु संसारी मुक्तः।
स त्रिविधः पुनरुत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तः॥ चउगइसंकमणजुदो पंचविही पंचभावभेएण। पुव्वपरदक्खिणुत्तरउड्ढाधोगमणदो छद्धा ॥ २५ ॥
चतुर्गतिसंक्रमणयुक्तः पंचविधः पंचभावभेदेन ।
पूर्वापरदक्षिणोत्तरोधिोगमनतः षोढा ॥ सिय अत्थि णत्थि उहयं सिय वत्तव्वं च अस्थिवत्तव्वं । सिय वत्तव्वं पत्थि उभहो वत्तव्वमिदि सत्त ॥ २६ ॥
स्यादस्ति, नास्ति, उभयः, स्यादवक्तव्यः, अस्त्यवक्तव्यः।
स्यादवक्तव्यो नास्ति, उभयोऽवक्तव्य इति सप्त ॥ जैसे संग्रह नय की अपेक्षा जीव एक प्रकार का है और व्यवहार नय से संसारी एवं मुक्त के भेद से दो प्रकार का है।'
१. ज्ञान दर्शन की अपेक्षा और त्रस स्थावर को अपेक्षा भी जीव के दो भेद हैं।