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अंगपण्णत्ति
महाकल्प प्रकीर्णक का कथन महकप्पं णायव्वं जिणकप्पाणं च सव्वसाहणं । उत्तमसंहडणाणं दव्वक्खेत्तादिवत्तीणं ॥२९॥ महाकल्प्यं ज्ञातव्यं जिनकल्पानां च सर्वसाधूनां ।
उत्तमसंहननानां द्रव्यक्षेत्रादिवतिना ॥ तियकालयोगकप्पं थविरक्कप्पाण जत्थ वणिज्जइ । दिक्खासिक्खापोसणसल्लेहणअप्पसक्कारं ॥३०॥
त्रिकालयोगकल्प्यं स्थविरकल्पानां यत्र वर्ण्यते ।
दीक्षाशिक्षापोषणसल्लेखनात्मसंस्काराणि ॥ उत्तमठाणगदाणं उक्किद्वाराहणाविसेसं च । उत्तमस्थानगतानां उत्कृष्टाराधनाविशेषं च।
इदि महाकप्पं गदं-इति महाकल्प्यं गतं । काल और संहनन का आश्रय कर साधुओं के योग्य द्रव्य, क्षेत्रादिक का जो वर्णन करता है वा जिसमें उत्कृष्ट संहननादि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर प्रवृत्ति करने वाले, जिनकल्पी साधुओं के योग्य त्रिकाल योग आदि अनुष्ठान का और स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा-शिक्षा, गण पोषण, आत्म संस्कार, सल्लेखना, उत्तम स्थान, गति, उत्कृष्ट आराधना आदि का विशेष वर्णन है वह महाकल्प कहलाता है ।। २९-३०॥
विशेषार्थ
जिन्होंने राग, द्वेष, मोह को जीत लिया है, जो उपसर्ग और परोषह रूपी शत्रुओं के वेग को सहन करने में समर्थ हैं तथा जो जिनेन्द्र भगवान् के समान विहार करते हैं वे जिनकल्पी कहलाते हैं। ___ वर्द्धमान स्वामी के पूर्व चतुर्थ काल में उत्तम संहननधारी मुनि सर्व सावद्ययोग निवृत्ति रूप सामायिक चारित्र के धारी होते थे। भेद रूप चारित्र (छेदोपस्थान चारित्र) का पालन नहीं था। वे जिनकल्पी कहलाते थे। अर्थात् तेरह प्रकार का चारित्र, अट्ठाईस मूलगुण का पालन करते हुए १. भगवती आराधना/१५५ २. गो. क. जी./५७ ।