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आवश्यकसूत्रस्य
॥ मूलम् ॥ बावीसाए परिसहेहि ॥ सू० १५ ॥
॥ छाया ॥ द्वाविंशत्या परिषहैः ॥ मू० १५ ॥
॥ टीका ॥ 'परिसहेहिं' परि=समन्तात् सान्ते क्षम्यन्ते कर्मनिर्जराथै मोक्षार्थिभिरिति परिषहास्तैः, ते यथा क्षुधापरिषहः (१), पिपासापरिषहः (२), शीतपरिषहः (३), उष्णपरिषहः (४), दंशमशकपरिषहः (५), अचेलपरिषडः (६), अरतिपरिषहः (७), स्त्रीपरिषहः (८), चर्या-(बिहार) परिषहः (१), नैषेधिकीपरिषहः (१०), शय्यापरिषहः (११), आक्रोशपरिषहः (१२), वधपरिपहः (१३), याचनापरिषहः (१४), अलाभपरिषहः (१५), रोगपरिषहः (१६), तृणस्पर्शपरिषहः (१७), जल्ल [मल्ल]-परिषहः (१८), 'सत्कारपुरस्कारआदि से दिये हुए आहार आदि का सेवन करना, इनसे जो अतिचार हुआ हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥सू० १४॥
मोक्षार्थी जिन्हें कर्मों की निर्जरा के लिये सहन करते हैं उन्हें 'परिषह' कहते हैं वे बाईस है
(१) क्षुधा, (१) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या (चलना), (१०) नषेधिकी (बैठना), (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कारपुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, (२२) કરવું,-એ સર્વથી જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાંથી હું નિવૃત્ત થાઉં છું.' (सू० १४)
મોક્ષાથી જો કર્મોની નિર્જરા કરવા માટે જે સહન કરે છે. તેને 'परिष' . मने परिपड मावीस-२२ ॥२॥ छ (१) क्षुधा भूम, (२) पिपासा (तृषा), (3) शीत (62), (४) Gey (५), (५) शमश: () (भ-७२), (६) अयेस, (७) मति, (८) श्री, (e) यर्या (यासत), (१०) नैघिी (स), (११) शय्या, (१२) Bha, (१३) १५, (१४) यायना (१५) men, (१६) रोग, (१७) तृपस्पश, (१८) मत, () सा२५२२४१२, (२०) प्रज्ञा,
१- अत्र सत्कारो वस्त्रादिना, पुरस्कारचाभ्युत्थानादिना ।