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अनुयोगचन्द्रिका टीका सत्र २४६ नामनिष्पन्ननिरूपणम्
७६५ सम मनोऽस्येति समनाः, स एव श्रमण इति श्रमणशब्दस्य पूर्ववैलक्षण्येन निर्वचन कृत्वा-पर्यायान्तरमपि भवितु मह तीति प्रदर्शयितुमाह-'णत्थि य से' इत्यादि। तस्य सममनस्कत्वात् सर्वेषु चैत्र वापि जीवेषु न कश्चिद् द्वेष्यः अपियः प्रिया पेमारी का अस्ति । एतेन हेतुना स श्रमगः सममना एव निरूक्तरीत्या श्रमणो भवति । ए श्रमणस्य अन्योऽपि पूर्वविलक्षणः पर्यायो वोध्य इति ॥४॥ इत्थं सामायिकयुक्तस्य साधोः स्वरूपं निरूप्य प्रकारान्तरेण पुननिरूपयति-'उरंग' मनोऽत्येति समनाः' इस निर्वचन से उसमें सममनस्रूप श्रमणता का प्रतिपादन करते हैं जो पहिले निर्वचन की अपेक्षा से भिन्न है। (णस्थि थ से कोह देसा पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु, एएण होह समणो एसो अन्नोऽवि पज्जामओ) समस्त जीवों के ऊपर सममनवाला होने के कारण जीवों में से जिसका कोई भी जीव द्वेष्य (द्वेष करने लायक नहीं है, और न कोई जीव जिसे प्रिय हैं-प्रेमाश्रय है-इस श्रमण ? शब्द की निरुक्ति से सममनाला जीव-श्रमण कहलाता है। श्रमण शब्द की पहिले की अपेक्षा दूसरी प्रकार की निरुक्ति है। इस निरुक्ति की रीति के अनुसार 'समं मनोऽस्येति समनाः समना एव श्रमणः' समनलू यह शब्द भी श्रमण शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है। क्योंकि जो सममनवाला होता है, वही श्रमण होता है । इस प्रकार सामायिक युक्त साधु के स्वरूप का निरूपण करके प्रकारान्तर से पुनः उसका निरूपण सत्रः कार करते हैं-(उरगगिरिजलग सागर नहतल तरुण-समो य जो
मनोऽस्येति समनाः" मा नियनथी तमा समभन३५ श्रमतानु प्रतिपादन हुरे छ, २ घंथ नियननी अपेक्षा लिन्न, (गस्थि य से कोइ पैसों पियो य सव्वेसु चेव जीवेसु, एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पन्जाओ) સમસ્ત જીવો પર સમયમનવાળો હેવાથી જીવમાંથી જેને કોઈ પણ જીવઢેથ છેષ કરવા ગ્ય) નથી, અને ન કેઈ જીવ જેને પ્રિય છે, પ્રેમાશ્રય છે, આ શ્રમણ શબ્દની નિરુક્તિથી સમનવાળો છવ-શ્રમણ કહેવામાં આવે છે. આ શ્રમણ શબ્દની પહેલાની અપેક્ષાએ બીજી નિરુક્તિ છે. આ નિરુકિત અજબ
समें मनेोऽस्येति समनाः, समनां एव श्रमणः' समनसू मा । पंथ अभय શબ્દને પર્યાયવાચી શબ્દ છે. કેમ કે જે સમનવાળો હોય છે, તેજ શ્રમણ હોય છે. આ પ્રમાણે સામાયિકયુક્ત સાધુને સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરીને Asiतर शतनु नि३५ । छ. (उरगगिरि जलणसागरनहतलतरंगणसंमों यजो होइ, भमर, मियधरणि जलरुहर विपर्वणसमो य सौं समणों) सेवा नियं,