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अनुयोगद्वारसूत्रे काशश्रेणिः। तदेतद् ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्याक्षीणम् । तदे. तव नो आगमतो द्रव्याक्षीणम् । तदेतत द्रव्याक्षीगम् । अथ किं तव भावाक्षीणम्। भावाक्षीणं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आगमतश्च नो आगमतश्च । अथ कि तत् आगसे है-(सन्धागास सेदी, से तं जाणयसरीरभवियसरीर वरित दव्यजशीणे) सर्याकाश श्रेणि जो है, वही ज्ञायकशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण है। तात्पर्य यह है कि-'लोक और अलोकरूप आकाश यहां सर्वाकाश पद से गृहीत हुआ है। इन दोनों की जो प्रदेश पंक्ति है, वह सर्वाकाश श्रेणि है । उसमें यदि एक २ प्रदेश का भी अपहार किया जावे तो भी, बह कभी खाली नहीं हो सकती है। इसलिये यह ज्ञायफशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीणरूप से कही गई है। इसमें द्रव्यता आकाश द्रा के अन्तर्गत होने के कारण है। (से तं नो ओगमभी दव्यज्झीणे) इस प्रकार यह नो आगम की अपेक्षा दुरुप अक्षीण का स्वरूप है। (से तदन्यज्झीणे) इस प्रकार द्रव्य अक्षीण के तीनों भेदों के स्वरूप वर्णन से द्रव्य मक्षीण का समस्त स्वरूप निरूपित हो जाता है । (से कि त भाव. ज्झीणे?) हे भदन्त ! भाव अक्षीण का क्या स्वरूप है ? .. उत्तर--(भावज्झीने दुविहे पण्गत्ते) भाव अक्षीण दो प्रकार का कहा है। (तं जहा) जैसे-(आगमओघ नो आगममो य) एक आगम (सव्वागाससेदी, से त जाणयबरोरभवियसरीरवरित दव्यज्झीणे) साश શ્રેણિ જે છે, તે જ જ્ઞાયકશી ભવ્ય શરીર વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષણ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે “લેક અને અલેકરૂપ આકાશ અહીં સકાશ પદથી ગૃહીત થયેલ છે. એએ બનેની જે પ્રદેશ પંક્તિ છે, તે સર્વાકાશ શ્રેણિ છે. તેમાં જે એક એક પ્રદેશને પણ અપહાર કરવામાં આવે તે પણ તે ખલી થઈ શકે તેમ નથી એથી આ જ્ઞાયકશરીર અને ભવ્ય શરીરથી વ્યતિરિક્ત દ્રવ્ય અક્ષીણરૂપમાં કહેવામાં આવે છે. આમાં દ્રવ્યતા भ द्र०यनी मत 4 . छे. (से तनो आगमओ दवणे)
या प्रमा, मनासारामनी सपेक्षा द्रव्य पक्षी १३५ छे. (से त दवमीणे) ॥ प्रमाणे द्र०य सक्षीशुना होना २१३५ व नथी द्र०५ पक्षानु समस्त २१३५ नि३पित ४ ५ छ (से कि त' भावज्झीणे) હે ભેદત ભાવ અક્ષણનું સ્વરૂપ કેવું છે?
उत्तर:-(भावज्झीणे दुविहे पण्णत्ते) मा भक्षीणना मे । छ :(वंजहा) २ (बागमओ य नो भागमो य) मे भागमा भने