SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा “पछइ श्रावक डाबइ हाथिइं प्रतिमा पाणीइं छांइट।" खरतरगच्छीय प्रतिष्ठाविधिकार का यह संशोधन तपागच्छ के संशोधित प्रतिष्ठा-कल्पों का आभारी है। उत्तरवर्ती तपागच्छीय प्रतिष्ठा-कल्पों में जलाछोटन तथा चन्दनादि पूजा श्रावक के हाथ से ही करने का विधान हुआ है जिसका अनुसरण उक्त विधिलेखक ने किया है। आज के कतिपय अनभिज्ञ प्रतिष्ठाचार्यः ___ आज हमारे प्रतिष्ठाकारक गण में कतिपय प्रतिष्ठाचार्य ऐसे भी हैं कि प्रतिष्ठाविधि क्या चीज होती है, इसको भी नहीं जानते। विधिकारक श्रावक जब कहता है कि 'साहिब वासक्षेप करिये' तब प्रतिष्ठाचार्य साहब वासक्षेप कर देते हैं। प्रतिमाओं पर अपने नाम के लेख खुदवा करके नेत्रों में सुरमे की शलाका से अंजन किया कि अंजनशलाका हो गई। मुद्रा, मन्त्रन्यास, होने न होने की भी प्रतिष्ठाचार्य को कुछ चिन्ता नहीं। उनके पास क्रियाकारक रूप प्रतिनिधि तो होता ही है, जब प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठाविधि को ही नहीं जानता तब तद्गत स्वगच्छ की परम्परा के ज्ञान की तो आशा ही कैसी ? प्रतिमाओं में कला-प्रवेश क्यों नहीं होता? : लोग पूछा करते हैं कि पूर्वकालीन अधिकांश प्रतिमाएँ सातिशय होती है तब आजकल की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ प्रभाविक नहीं होतीं, इसका कारण क्या होगा? पहिले से आजकल विधि-विषयक प्रवृत्तियां तो बढ़ी हैं, फिर आधुनिक प्रतिमाओं के कला-प्रवेश नहीं होता इसका कुछ कारण तो होना ही चाहिए। प्रश्न का उत्तर यह है कि आजकल की प्रतिमाओं में सातिशयिता न होने के अनेक कारणों में से कुछ ये हैं1. प्रतिमाओं में लाक्षणिकता होनी चाहिए जो आज की अधिकांश प्रतिमाओं में नहीं होती। केवल चतुःसूत्र वा पंचसूत्र मिलाने से ही प्रतिमा अच्छी मान लेना पर्याप्त नहीं है। प्रतिमाओं की लाक्षणिकता की परीक्षा बड़ी दुर्बोध है, जो हजार में से एक दो भी मुश्किल से जानते होंगे। 2. जिन प्रतिष्ठा-विधियों के आधार से आजकल अंजनशलाकाएँ कराई जाती हैं, वे विधि-पुस्तक अशुद्धि-बहुल होते हैं। विधिकार अथवा प्रतिष्ठाकार ऐसे होशियार नहीं होते जो अशुद्धियों का परिमार्जन कर शुद्ध विधान करा 31
SR No.036510
Book TitlePrabhu Veer Ki Shraman Parmpara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherMission Jainatva Jagaran
Publication Year2017
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy