________________ = प्रभुवीर की श्रमण परंपरा = एह अनुगत परंपर भणी सेवता। ज्ञान योगी विबुध प्रगट जग-देवता / / 23 / / अठारहवीं गाथा से फरमाते हैं कि तपगच्छ की नीति सुन्दर हैं क्यों कि तपागच्छ में सूत्र के अनुसार विचार करने की रीत चलती है। कहीं पर भी अपनी बुद्धि अथवा अहम् के वश होकर किसी विषय में हठाग्रह नहीं है। पूर्व में अशठ, भवभीरु, गीतार्थ आचार्य भगवंतों ने आचरण किया हो, अन्य बह गीतार्थों ने जिसका निषेध नहीं किया हो ऐसी जीत आचरणा को तपागच्छ वफादार रहता है। इस प्रकार पूर्वाचार्यों के प्रति वफादारी, समर्पणता के भाव से उत्पन्न होनेवाले पुण्य के बल से तपागच्छ अविरत चल रहा है। पूर्व महापुरुषों के प्रति बहुमान भाव से विशिष्ट पुण्य का उदय होता है। उपसंहार इस लेख से अब स्पष्ट हो गया होगा कि प्रभु वीर की श्रमण परंपरा और तपागच्छ एक ही है। स. 1285 में तो मूल श्रमण परंपरा का ही “तपागच्छ'' यह नामकरण हुआ था / तपागच्छ नया उत्पन्न नहीं हुआ है। प्रभु वीर की श्रमण परंपरा के नामकरणों के गौरववंत इतिहास को, तटस्थता पूर्वक ऐतिहासिक ग्रंथों एवं पट्टावलीयों के आधार से संक्षेप से प्रगट करने का प्रयास यहाँ पर किया गया है। सत्यान्वेषी विचारकों को तटस्थतापूर्वक इस लेख पर चिंतन-मनन करने से ऐतिहासिक सत्य को जानने की नयी दिशा प्राप्त होगी एवं श्रद्धालु जनों को गुणगरिमायुक्त गौरववंती गुरु परंपरा पर श्रद्धाभक्ति विकसित होगी, ऐसी आशा है। जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छामि-दुक्कडम् 25