________________ प्रचार किया गया था और वर्तमानकाल में भी किया जा रहा है कि-"वि. सं. 1080 में पाटण में दुर्लभ राजा की राजसभा में चैत्यवासियों से हुए वाद में विजय की प्राप्ति के उपलक्ष्य में जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद मिला था। अतः उनकी परंपरा में हुए अभयदेवसूरिजी भी खरतरगच्छ के ही थे। ऐसे प्रचार के कारण कईं लोग अभयदेवसूरिजी को खरतरगच्छीय मानते थे और मानने लगे हैं। इतिहास तो इतिहास होता है, उसे न तो बदला जा सकता है और ना ही झुठलाया जा सकता है। परंतु, यह कुदरत का नियम है कि जिसका प्रबल प्रचार के द्वारा तथा ठोस प्रमाणों के आधार से निराकरण नहीं किया गया हो, ऐसा गलत इतिहास भी प्रचार के माध्यम से सरल और भोली जनता तथा धीरे-धीरे विद्वद् समाज में भी मान्यता को प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही अभयदेवसूरिजी के गच्छ के विषय में हुआ है। एक वर्ग ऐसा है जो उन्हें चान्द्रकुलीन मानता है, तथा दूसरा उन्हें खरतरगच्छीय कहता है। इतना ही नहीं वर्तमान में तो अभयदेवसूरिजी की तरह, संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचंद्रसूरिजी को खरतरगच्छीय माने या नहीं, इसमें भी विवाद चल रहा है। उसके विषय में पू.आ. जिनपीयूषसागरसूरिजी का पत्र प.पू. गच्छाधिपति आ. जयघोषसूरिजी म.सा., अन्य आचार्यादि एवं मेरे ऊपर भी आया था। उसका जवाब गच्छाधिपति के आदेश से मैने उनको अनेक प्रमाणों के साथ भेज दिया था। मेरे भेजे हुए प्रमाणों पर अपने विचार दर्शाये बिना पुनः ‘संवेगरंगशाला के कर्ता आ. जिनचंद्रसूरिजी खरतरगच्छीय ही थे' इस प्रकार अपनी उसी बात को पुनः दोहराता हुआ पत्र पू. गच्छाधिपति आ. जयघोषसूरिजी म.सा. को भेजा गया। जिसकी प्रतिलिपी मेरे ऊपर भी आयी थी। इतिहास के विषय में मेरा कार्य चालु होने से उसका उत्तर देने का गच्छाधिपति की ओर से पुनः आदेश आया। अतः मैने दोनों पत्रों का सूक्ष्म अवलोकन किया। उनके दोनों पत्र ठोस एवं ऐतिहासिक प्राचीन प्रमाणों से युक्त नहीं थे।* तथा उसी *1. 'खरतरगच्छ का उद्भव' और 'जैनम् टुडे' अंक-अगस्त 2016 के पृ. 13 का लेख ___ (जिनपीयूषसागरसूरिजी) एवं खरतरगच्छ सम्मेलन संबंधित ‘श्वेताम्बर जैन' का जून 2016 के विशेषांक में दिया हुआ मुनिश्री मनितप्रभसागरजी का ‘खरतरगच्छ का गौरवशाली इतिहास' लेख। *2. दोनों पत्र एवं उनकी समीक्षा के लिए देखें परिशिष्ट-8 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /009