________________ अंतिम निष्कर्ष एवं हार्दिक निवेदन... इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों से जब जिनेश्वरसूरिजी की खरतर बिरुद मिलने की बात ही सिद्ध नहीं होती है, तब अभयदेवसूरिजी को खरतरगच्छीय मानना भी गलत सिद्ध हो जाता है। प्रश्न उठता है कि उनका गच्छ कौन सा था? उसका सीधा उत्तर यह है कि अभयदेवसूरिजी स्वयं अपने ग्रंथों में खुद को चान्द्रकुल का बताते हैं, अतः ‘अभयदेवसूरिजी चान्द्रकुल के थे' यह ही अटल ऐतिहासिक सत्य है एवं उनकी शिष्य परंपरा अभयदेवसूरि संतानीय अथवा छत्रापल्लीय के नाम से पहचानी जाती थी जो प्रायः 15वीं शताब्दी तक ही चली थी। इसी तरह अभयदेवसूरिजी के वडील गुरुबंधु, संवेगरंगशाला के कर्ता आ. जिनचंद्रसूरिजी भी खरतरगच्छीय नहीं परंतु चान्द्रकुलीन सिद्ध होते हैं। खरतरगच्छ में युगप्रधान जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचंद्रसूरि, आ. जिनकुशलसूरि, महम्मद तुघलक प्रतिबोधक आ. जिनप्रभसूरिजी, युगप्रधान आ. जिनचंद्रसूरिजी, विद्वद्वर्य समयसुन्दर गणि, अध्यात्मयोगी महोपाध्याय देवचंद्रजी आदि अनेक महापुरुष हुए हैं। उन्होंने जो महती शासन-सेवा की थी उसकी अनुमोदना सभी को करनी ही चाहिए एवं उसका श्रेय ‘खरतरगच्छ लेवें, उसमें कोई हर्ज नही है। परन्तु संवेगरंगशाला के कर्ता आ. जिनचंद्रसूरिजी एवं नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी चान्द्रकुल में हुए थे, अतः उसका श्रेय समस्त चान्द्रकुलीन गच्छों को मिलना चाहिए, नहीं कि केवल खरतरगच्छ को ही। जैसे उमास्वातिजी, वज्रस्वामीजी, देवर्द्धिगणिजी, हरिभद्रसूरिजी आदि महापुरुष सभी के लिए समान है, उसी तरह अभयदेवसूरिजी चान्द्रकुलीन महापुरुष थे। अतः समस्त चान्द्रकुलीन गच्छों के कहलाने चाहिए। गच्छ का स्वाभिमान होना अनुचित नहीं है, परंतु उसके साथ में सत्य का पक्षपात होना भी जरुरी है, अन्यथा वह गच्छ राग में परिवर्तित हो सकता है। मध्यस्थभाव से सत्यान्वेषण करके स्व-पर गच्छ के प्रति बहमान, प्रेम रखने से ही तात्त्विक सौहार्द का वातावरण निर्मित किया जा सकता है। इस दिशा में हम सभी आगे बढ़ें, ऐसी प्रभु से प्रार्थना.... / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /079 )