________________ श्रीजेसलमेरुदुर्गस्थ सवंग सारे चिय न अप्पवोच्छेयदच्छतुच्छफले। पत्तागसाडहिए समंतओ निश्वसच्छाए / न य अन्नेसि गम्मे अकंटए निरवसाणवुढिगुणे। तुंगमहीधरमुद्धाणुगे वि भुवि पावियपइट्ठो॥ अच्चतं सरले च्चिय अपुव्ववंसम्मि परिवहंतम्मि ! जातो य वइरसामी महापभू परमपयगामी // तस्साहाए निम्मलजसधवलो सिद्धिकामलोयाणं / सविसेसवंदणिज्जो य रोयणा थोरथवगो ब्व / / कालेणं संभूओ भयवं सिरिषदमाणमुणिवसभो। निप्पडिमपसमलच्छीविच्छडाखंडभंडारो // क्वहारनिच्छयनय च दब्वभावत्थय व्ध धम्मस्स / परमुन्नइजणगा तस्स दोणि सिस्सा समुप्पण्णा // पढमो सिरिसूरिजिणेसरो ति सूरे व्य जम्मि उइयम्मि। होत्था पहावहारो दूरं तेयस्सिचक्कस्स // अज्ज वि य जस्स हरहासहंसगोरं गुणाण पब्भारं। सुमरंता भव्वा उध्वहंति रोमंचमंगेसु // बीओ उण विरइयनिउणपवरवागरणपमुहबहुसत्थो। नामेण बुद्धिसागरसूरि ति अहेसि जयपयडो / तेसि पयपंकउच्छंगसंगसंपत्तपरममाहप्पो। सिस्सो पढमो जिणचंदसूरिनामो समुप्पन्नो // 40 // अन्नो य पुन्निमाससहरो व्व निव्ववियभव्वकुमुयवणो। सिरिअभयदेवसूरि ति पत्तकित्ती परं भुवणे / / जेण कुबोहमहारिउविहम्ममाणस्स नरवइस्सेव। सुयधम्मस्स दढत्तं निब्वत्तियमंगवित्तीहि / / तस्सऽभत्थणवसओ सिरिजिणचंदेण मुणिवरेण इमा। मालागारेण व उच्चिणित्तु वरवयणकुसुमाई // मूलसुयकाणणाओ गुथित्ता निययमइगुणेण दडं / विविहत्यसोरभभरा निम्मवियाऽऽराहणामाला / / एयं च समणमहुयरहिययरं अत्तणो सुहृनिमित्तं। सव्वायरेण भव्वा विलासिणो इव निसेवंतु / / एसा य सुगुणमुणिजणपयप्पणामप्पवित्तभालस्स ! सुपसिद्धसेटिगोद्धणसुयविस्सुयजज्जणागस्स // अंगुन्भवाण सुपसत्थतित्थजत्ताविहाणपयडाण / निप्पडिमगुणज्जियकुमुयसच्छहातुच्छकित्तीणं // जिणविबपइट्ठावणसुयलेहणपमुहधम्मकिच्चेहि। अतुकासगदुक्कुहचित्तचमकारकारीणं // जिणमयभावियबुद्धीण सिद्धवीराभिहाणसेट्ठीणं / साहेज्जेणं परमेण आयरेणं च निम्मविया // एईए विरयणेण य जमज्जियं कि पि कुसलमम्हेहिं / पावितु तेण भव्वा जिणवयणाराहणं परमं // 50 // छत्तावल्लिपुरीए जज्जयसुयपासणागभवणम्मि। विक्कमनिवकालाओ समइकतेसु वरिसाण // एकारससु सएK पणुवीसासमहिएसु निष्फत्ति। संपत्ता एसाऽऽराहण त्ति फुडपायडपयस्था // लिहिया य इमा पढमम्मि पोत्थए विणयनयपहाणेण। सिस्सेणमसेसगुणालएण जिणदत्तगणिण ति ॥छ।। तेवष्णभहियाई गाहाणं इत्थ दस सहस्साई / सब्वगं ठवियं निच्छिऊण सम्मोहमहणत्थं ॥छ।।ॐछ॥ अंकतोपि॥छ / सर्वाग्रं गाथा 10053 / / छ / // इति श्रीजिनचंद्रसूरिकता तद्विनेयश्रीप्रसभचंद्राचार्यसमभ्यथितगुणचंद्रगणिप्रतिसंस्कृता जिनवल्लभगणिना च संशोधिता संवेगरंगशालाभिधानाराधना समाप्ता ॥छ / ॐ॥छ।। मंगलं महाश्रीः // 50 // संवत् 1207 वर्षे ज्येष्ठ शुदि 14 गुरौ अद्येह श्रीवटपदके दंड. श्रीवोसरिप्रतिफ्ती संवेगरंगशालापुस्तकं लिखितमिति ॥छ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः / दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः छ। 5. // जन्मदिनचरणभाराकान्तशिरःसुरगिरेरिवात्तेन / रुक्मरुचिसंचयेन स्फुरत्तनुर्जयति जिनवीरः // 1 // सद्राजहंसचक्रकोडाक्रमवति विलासिदलकमले। श्रीमत्यणहिलपाटकनगरे सरसीव कृतवासः // 2 // श्रीमिलमालगुरुगोत्रसमुद्धति यश्चक्रेऽभिरामगुणसम्पदुपेतमूर्तिः / ताराधिनाथकमनीययशाः स धीरः श्रीजांबवानिति मतो भुवि ठक्कुरोऽभूत् // 3 // भद्रः प्रकृत्येव यथाश्यनागः सदाऽभवत् सत्कृतवीतरागः / कटप्रविस्तारितभूरिदानस्तन्नन्दनः ठक्कुरवर्धमानः // 4 // तस्य धाजनि सत्पत्नी नदीनाथप्रियागमा। यशोदेवीति गंगेव सुमनोहरचेष्टिता // 5 // * इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से 10053 श्लोक प्रमाण का यह संवेगरंगशाला ग्रंथ है। ऐसा बताया है, अतः उसके 18000 श्लोक प्रमाण होने की मान्यता स्पष्ट रूप से बाधित होती है। * इसमें आ. जिनचंद्रसूरिजी द्वारा संवेगरंगशाला ग्रंथ की पूर्णाहूति छत्रापल्ली पूरी में की गई थी ऐसा उल्लेख है जो बताता है कि जिनचंद्रसूरिजी का छत्रापल्ली पुरी से कुछ विशेष संबंध रहा होगा। इसीलिए उनके अनुयायी छत्रापल्लीय' कहलाये होंगे। - संपादक इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /075 )