________________ क्षमाश्रमण, संघदासगणिजी, जिनदासगणिजी महत्तर, आदि पूर्वाचार्यों ने भाष्य एवं चूर्णियों की रचना करके सूत्रों के अर्थ को सुगम एवं सुव्यवस्थित किया। यह साहित्य प्राकृत एवं कहीं-कहीं पर संस्कृत मिश्र भी पाया जाता है। सूत्रों के अर्थ को सुग्राह्य एवं चिरस्थायी बनाने हेतु संस्कृत में टीका रचने का महान उपक्रम भी आचार्यों ने किया, जिसमें सर्वप्रथम गन्धहस्तिसूरिजी ने 11 अंगों पर टीकाएँ बनायी थी, ऐसा हिमवंत स्थविरावली से पता चलता है। वर्तमान में उनकी एक भी टीका नहीं मिलती है। आवश्यकनियुक्ति गा. 3 की व्याख्या करते हए हरिभद्रसूरिजी ने आचाराङ्ग (1 अ. 4 उद्देश) की टीका का उद्धरण दिया है। यह पाठ चूर्णि से मेल नहीं खाता है, अतः अनुमान किया जाता है कि उनके सामने गन्धहस्तिजी की टीका रही होगी, क्योंकि शीलाङ्काचार्यजी तो हरिभद्रसूरिजी के बाद में हुए थे। ___ गन्धहस्तिसूरिजी के बाद, 10वीं शताब्दी में (वि.सं. 933) शीलाङ्काचार्यजी हए। उन्होंने भी गन्धहस्तिसूरिजी एवं अन्य आचार्य की टीका के आधार से अंगों पर टीकाएँ लिखने का प्रयास किया था।*' परन्तु, विक्रम की 12वीं शताब्दी की शुरुआत तक तो मेधाशक्ति की हानि, दुष्काल तथा विषम राजकीय परिस्थिति आदि कारणों से संरक्षण नहीं हो पाने से आगमों के अर्थ की परंपरा विच्छिन्न प्रायः हो गयी थी। अतः सूत्र भी दुर्बोध हो गये थे।*2 ग्यारह अंगों में से आचारांग एवं सूयगडांग इन दो अंगों पर ही शीलांकाचार्यजी की टीकाएँ उपलब्ध थी। शेष 9 अंगों के अर्थ, प्राप्त परंपरा एवं स्वयं के क्षयोपशम के अनुसार गुरु-भगवंतों के द्वारा यथाशक्य दिये जाते थे। स्थानाङ्ग *1 अयश्च श्लोकश्चिरन्तनटीकाकारेण न व्याख्यातः। तत्र किं सुगमत्वात् उताभावात्, सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते तदभिप्रायञ्च वयं न विद्मः। (आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध अ. 9, उद्देश-2, श्लो.-1 टीका) प्रथम अध्ययन पर ही गन्धहस्ति टीका होने का शीलांकाचार्यजी ने अध्ययन 1 और 2 में उल्लेख किया है तथा नौवें अध्ययन में पुनः प्राचीन टीकाकार को सूचित किया है, अतः स्पष्ट होता है कि उनके पास गन्धहस्ति के सिवाय अन्य टीका भी मौजूद थी। *2 समये तत्र दुर्भिक्षोपद्रवैर्देशदौस्थ्यतः। सिद्धान्तस्त्रुटिमायासीदुच्छिन्ना वृत्तयोऽस्य च / / 101 / / ईषत्स्थितं च यत्सूत्रं प्रेक्षासुनिपुणैरपि। दुर्बोधदेश्यशब्दार्थं खिलं जज्ञे ततश्च तत् / / 102 / / (प्रभावकचरिते 19, अभयदेवसूरि चरितम्) इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /007