________________ अभयदेवसूरिजी की शिष्य-परंपरा में कौन? पुनः प्रश्न उठ सकता है कि अभयदेवसूरिजी की शिष्य-परंपरा में कौन हुए थे? उसका समाधान हमें जिनवल्लभगणिजी की ‘अष्टसप्ततिका', सुमतिगणिजी कृत गणधरसार्द्धशतक बृहवृत्ति आदि से मिलता है। ___अष्टसप्ततिका में प्रसन्नचंद्रसूरिजी, वर्धमानसूरिजी, हरिभद्रसूरिजी, देवभद्रसूरिजी आदि को अभयदेवसूरिजी की शिष्य परंपरा के रूप में बताये हैं। तथा गाणधरसार्द्धशतक वृत्ति में वर्धमानसूरिजी की अभयदेवसूरिजी के पट्टधर बताये हैं। अतः ऐसा लगता है कि वर्धमानसूरिजी से अभयदेवसूरिजी की शिष्य परंपरा चली होगी। उस शिष्य परंपरा के ग्रन्थों की प्रशस्तियों में भी वर्धमानसूरिजी, जिनेश्वरसूरिजी, अभयदेवसूरिजी आदि के उल्लेख मिलते हैं तथा शिलालेखों में भी नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरि संतानीय श्री चंद्रसूरिभिः, अभयेदेवसूरिसंतानीय श्री धर्मघोषसूरिभिः इत्यादि रूप में 'अभयदेवसूरि संतानीय' शब्द का बहुत बार उल्लेख मिलता है। इस बात की महो. विनयसागरजी संपादित ‘खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' ग्रंथ एवं उनके 'पुरोवाक्’ से भी पुष्टि होती है। ___ अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे, क्योंकि उनके संतानीय आचार्यों के शिलालेखों में ‘खरतरगच्छ' ऐसा उल्लेख नहीं मिलता हैं। जैसे कि जिनदत्तसूरिजी की शिष्य परंपरा के 14वीं शताब्दी बाद के लेखों में उपलब्ध होता है। विशेषता यह है कि जिनदत्तसूरिजी के समकालीन एवं जिनवल्लभगणिजी के गुरुभाई ऐसे जिनशेखरसूरिजी की शिष्य परंपरा के लेखों में भी चान्द्रकुल अथवा रुद्रपल्लीय गच्छ का ही उल्लेख मिलता है, खरतरगच्छ का नहीं। इससे भी स्पष्ट होता है कि अभयेदवसूरिजी खरतरगच्छ के नहीं थे। महो. विनयसागरजी का अभिप्राय पद्मप्रभसूरिजी रचित 'मुनिसुव्रतचरित्र' की प्रशस्ति आदि के आधार पर महो. विनयसागरजी ने अभयदेवसूरिजी की शिष्य-परंपरा के विषय में इस प्रकार अपना अभिप्राय बताया है / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /066 )