________________ जिनवल्लभ वर्षों तक अभयदेवसूरि के शिष्यसमुदाय के साथ रहे थे, वे स्वयं विद्वान् एवं क्रियारूचि आत्मा थे, वह समय अधिकांश शिथिलाचारी साधुओं का था। उनका शैथिल्य देखकर जिनवल्लभ के हृदय में दःख होता था। अच्छे वक्ता होने के कारण वे शिथिलाचार के विरुद्ध बोला करते थे। देवभद्र आदि कतिपय अभयदेव सूरि के शिष्य भी उन्हें उभाड़ते और चैत्यवासियों के विरुद्ध बोलने को उत्तेजित किया करते थे। धीरे-धीरे जिनवल्लभ गणी का हृदय निर्भीक होता गया और चैत्यवासियों के विरोध के प्रचार के साथ अपने वैहारिक साधुओं के पालने के नियम बनाने तथा अपने नये मन्दिर बनाने के प्रचार को खूब बढ़ाया, राज्य सेअपने विधि चैत्य के लिए जमीन मांगी गई। स्थानिक संघ के विरोध करने पर भी जमीन राज्य की तरफ से दे दी गई। बस फिर क्या था, जिनवल्लभगणी तथा इनके पृष्ठपोषक साधु तथा गृहस्थों के दिमाग की गर्मी हद से ऊपर उठ गई और जिनवल्लभगणी तो खुल्ले आम अपनी सफलता और स्थानिक चैत्यवासियों की बुराइयों के ढोल पीटने लगे। कहावत है कि ज्यादा घिसने से चन्दन से भी आग प्रकट हो जाती है, पाटन में ऐसा ही हुआ। जिनवल्लभ गणी के निरंकुश लेक्चरों से स्थानिक जैन संघ क्षुब्ध हो उठा, सभी गच्छों के आचार्यों तथा गृहस्थों ने संघ की सभा बुलाई और जिनवल्लभ गणी को संघ से बहिष्कृत कर पाटन में ढिंढोरा पिटवाया कि “जिनवल्लभ के साथ कोई भी पाटणवासी आचार्य और श्रमणसंघ, किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखे, इस पर भी कोई साधु इसके साथ व्यवहार रखेगा तो वह भी जिनवल्लभ की तरह संघ से बहिष्कृत समझा जायगा।" पाटण के जैन संघ की तरफ से उपर्यक्त जाहिर होने के बाद जिनवल्लभ गणिजी की तूती सर्वथा बन्द हो गई, उनके लेक्चर सुनने के लिए सभाओं का होना बंद हो गया। उनके अनुयायियों ने उन्हें सलाह दी कि पाटण में तो आपके व्याख्यानों से अब कोई लाभ न होगा, अब बाहर गांवों में प्रचार करना लाभदायक होगा। गणीजी पाटण छोड़कर उसके परिसर के गांवों में चले गए और प्रचार करने लगे, परन्तु उनके संघ बाहर होने की बात उनके पहले ही पवन के साथ गांवों में पहुँच चुकी थी, वहाँ भी इनके व्याख्यानों में आने से लोग हिचकिचाते थे। थोड़े समय के बाद गणीजी वापस पाटण आए और अपने हितचिन्तकों से कहा-गुजरात में फिरने से तो अब विशेष लाभ न होगा। गुजरात को छोड़कर अब किसी दूसरे देश में विहार करने का निर्णय किया, उनके समर्थकों ने बात का समर्थन किया, आचार्य देवभद्र ने जिनशेखर को, जो जिनवल्लभ का गुरु भाई था, जिनवल्लभ के इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /060