________________ शिष्य नहीं बने थे। इतना ही नहीं उन्होंने प्रसन्नचंद्रसूरिजी, वर्धमानसूरिजी आदि चार आचार्यों को अभयदेवसूरिजी के प्रभावक शिष्यों के रूप में बताया भी है। परंतु स्वयं को अभयदेवसूरिजी का शिष्य नहीं बताया है। वह इस तरह से हैं सत्तर्कन्यायचर्चार्चितचतुरगिरः श्री प्रसन्नेन्दसूरिः सूरिश्रीवर्धमानो यतिपतिहरिभद्रो मुनीड् देवभद्रः इत्याद्याः सर्वविद्यार्णवकलशभुवः सञ्चरिष्णूरूकीर्तिः स्तम्भायन्तेऽधुनाऽपि श्रुतचरणरमाराजिनो यस्य शिष्याः॥49॥ दुसरी बात गणधर सार्धशतक बृहवृत्ति में भी लिखा है कि'जिनवल्लभगणिजी चैत्यवासी के शिष्य थे इसलिए अभयदेवसूरिजी ने स्वयं उन्हें आचार्य पद देकर पट्टधर नहीं बनाया था।' अतः स्पष्ट होता है कि जिनवल्लभगणिजी ने अभयदेवसूरिजी के पास ज्ञानउपसंपदा ली थी शिष्यत्व नहीं स्वीकारा था। इस प्रकार जब सिद्ध होता है कि जिनवल्लभगणिजी अभयदेवसूरिजी के शिष्य नहीं थे, अतः स्पष्ट हो जाता है कि उनकी शिष्य परंपरा कहलानेवाली वर्तमान खरतरगच्छ की परंपरा भी अभयेदवसूरिजी संतानीय नहीं हो सकती है। * यहाँ प्रश्न यह हो सकता है कि, अगर जिनवल्लभगणिजी की परम्परा अभयेदवसूरिजी शिष्य परंपरा नहीं कहलाती है, तो उनकी पट्टावलियों में अभयदेवसूरिजी आदि के नाम क्यों मिलते हैं? उसका समाधान इस प्रकार हो सकता है कि - जिनवल्लभगणिजी अभयेदवसूरिजी के गुणानुरागी एवं ज्ञान-उपसंपदा की दृष्टि से विद्या शिष्य के रूप में रहे थे, अतः जिनवल्लभगणि की परम्परा में हए साधु “जिनवल्लभ-गणिजी एवं अभयदेवसूरिजी के बीच गुरु-शिष्य का सम्बन्ध था', ऐसा मान कर स्वयं को अभयदेवसूरिजी से जोड़ने लग गये। कुछ भी हो, खरतरगच्छ की पट्टावलिओं में अभयदेवसूरिजी के उल्लेख होने मात्र से इस ऐतिहासिक सत्य को नहीं नकारा जा सकता है कि जिनवल्लभगणिजी चैत्यवासी ऐसे कूर्चपुरीय जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे अभयदेवसूरिजी के नहीं और इसलिए जिनवल्लभगणिजी की परंपरा में हुआ खरतरगच्छ भी अभयदेवसूरि संतानीय नहीं कहलाता है। ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /055