________________ इतिहास विशेषज्ञों के उल्लेख... 1. इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी ने अपने ऐतिहासिक संशोधनों का सार संक्षेप में इस प्रकार बताया है आज तक हमने खरतरगच्छ से सम्बन्ध रखने वाले सेंकड़ों शिलालेखों तथा मूर्तिलेखों को पढ़ा है, परन्तु ऐसा एक भी लेख दृष्टिगोचर नहीं हआ, जो विक्रम की 14वीं शती के पूर्व का हो और उसमें 'खरतर' अथवा 'खरतरगच्छ' नाम उत्कीर्ण हो, इससे जाना जाता है कि 'खरतर' यह शब्द पहले 'गच्छ' के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। (पट्टावली पराग - पृ. 354) 2. इसी प्रकार का अभिप्राय ठोस ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार से इतिहासप्रेमी ज्ञानसुंदरजी म.सा. ने भी व्यक्त किया है। 3. डॉ. बुलर ने भी सं. 1204 में जिनदत्तसूरिजी से खरतरगच्छ की उत्पत्ति मानी 4. 'खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह' में मोहपाध्याय विनयसागरजी ने 2760 लेखों का संग्रह दिया है, उनमें खरतरगच्छ के उल्लेख वाला सर्वप्रथम लेख 14वीं शताब्दी का ही है, उससे भी इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी एवं ज्ञानसंदरजी म.सा. की बात की पुष्टि होती है। उन लेखों में से 14वीं शताब्दी तक के लेख पीछे परिशिष्ट-5 में अवलोकन हेतु दिये गये हैं। महो विनयसागरजी ने भी 'दर्लभराज ने जिनेश्वरसरिजी को खरतर बिरुद प्रदान किया हो अथवा नहीं किन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि.... (खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास' पृ. 12) इस उल्लेख के द्वारा खरतर बिरुद की प्राप्ति में संदेह बताया है तथा पृ. 13 पर “अतः यह स्पष्ट है कि वर्धमान, जिनेश्वर, अभयदेव खरतरगच्छीय नहीं....” के द्वारा अभयदेवसूरिजी खरतरगच्छीय नहीं थे, ऐसा स्वीकारा है।*2 5. पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी ने खरतर बिरुद प्राप्ति का सर्वप्रथम उल्लेख जिस ग्रंथ में मिलता है ऐसे वृद्धाचार्य प्रबन्धावली ग्रंथ (15-16वीं शताब्दी का) को असंबद्ध प्रायः एवं अनैतिहासिक माना है और उसके आधार पर लिखी गयी परवर्ती पट्टावलियों को भी विशेष महत्त्व नहीं दिया है। (विशेष के लिये देखें -पृ. 33-34) *1 विशेष के लिये देखें परिशिष्ट-4, पृ. 116 *2 विशेष के लिए देखें पृ. 40-41 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /021 )