________________ है, जो जेसलमेर भंडार की ग्रंथसूची (गा.ओ.सि.नं.21), तथा अपभ्रंशकाव्यत्रयी (गा.ओ.सि.नं. 27) के परिशिष्ट आदि के अवलोकन से ज्ञात होगा। खरतरगच्छ वालों की मान्यता यह है कि, उस वाद में विजय पाने से महाराजा ने विजेता जिनेश्वरसूरिजी को ‘खरतर' शब्द कहा या विरुद दिया। इसके बाद उनके अनुयायी खरतरगच्छ वाले पहचाने जाते हैं। दर्लभराज का राज्य समय वि. सं. 1065 से 1078 तक प्रसिद्ध है तो भी खरतरगच्छ की स्थापना का समय सं. 1080 माना जाता है। संवेगरंगशालाकार इस जिनचंद्रसूरिजी की प्रभावकता के कारण खरतरगच्छ की पट्ट-परंपरा में उनसे चौथे पट्टधर का नाम 'जिनचंद्रसूरि' रखने की प्रथा है। आराधना-शास्त्र की संकलना प्रतिष्ठित पूर्वाचार्यों से प्रशंसित इस संवेगरंगशाला आराधना ग्रंथ अथवा आराधना शास्त्र को संकलता श्रेष्ठ कवि श्रीजिनचंद्रसूरिजी ने परम्परा-प्रस्थापित सरल सुबोध प्राकृत भाषा में की, उचित किया है। प्रारम्भ में शिष्टाचार-परिपालन करने के लिए विस्तार से मंगल, अभिधेय, संबंध, प्रयोजनादि दर्शाया है। ऋषभादि सर्व तीर्थाधिप महावीर, सिद्धों, गौतमादि गणधरों, आचार्यों, उपाध्यायों और मुनियों को प्रणाम करके सर्वज्ञकी महावाणी को भी नमन किया है। प्रवचन की प्रशंसा करके, निर्यामक गुरुओं और मुनियों को भी नमस्कार किया है। सुगति-गमन की मूलपदवी चार स्कन्धरूप यह आराधना जिन्होंने प्राप्त की, उन मुनियों को वन्दन किया और गृहस्थों को अभिनन्दन दिया (गा. 14), मजबूत नाव जैसी यह आराधना भगवती जगत् में जयवंती रहो, जिस पर आरूढ होकर भव्य भविजन रौद्र भव-समुद्र को तरते हैं। वह श्रुतदेवी जयवती है कि, जिसके प्रसाद से मन्दमति जन भी अपने इच्छित अर्थ निस्तारण में समर्थ कवि होते हैं। जिन के पद-प्रभाव से मैं सकल जन-श्लाघनीय पदवी को पाया हूँ, विबुधजनों द्वारा प्रणत उन अपने गुरुओं को मैं प्रणिपात करता हूँ। इस प्रकार समस्त स्तुति करने योग्य शास्त्र विषयक प्रस्तुत स्तुतिरूप गजघटाद्वारा सुभटकी तरह जिसमें प्रत्यूह (विघ्न)-प्रतिपक्ष विनष्ट किया है, ऐसा मैं स्वयं मन्दमति होने पर भी बड़े गुण-गणसे गुरु ऐसे सुगुरुओं के चरण-प्रसाद से भव्यजनों के हित के लिए कुछ कहता हूँ।(19) भयंकर भवाटवी में दुर्लभ मनुष्यत्व और सुकुलादि पाकर, भावि भद्रपन से, इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /169