________________ पत्र नं. 1 की समीक्षा इस प्रथम पत्र में आचार्य श्री ने 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' पृ. 6 के आधार पर आ. जिनचंद्रसूरिजी को आ. जिनेश्वरसूरिजी का पट्टधर बताया तथा 'संवेगरंगशाला,' 'गणधर सार्द्धशतक', 'पंचलिंगी प्रकरण' बीजापुर वृत्तांत तथा अभयकुमार चरित्र काव्य के प्रमाण दिये थे। उनसे इतना ही सिद्ध होता है कि संवेगरंगशाला के कर्ता आ. जिनचंद्रसूरिजी थे। ___ इन प्रमाणों के अनुसार “आ. जिनचंद्रसूरिजी, आ. जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर और संवेगरंगशाला के कर्ता थे" ऐसा सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है, उसमें हमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन इन प्रमाणों से उनके खरतरगच्छीय होने की सिद्धि नहीं होती है। अंत में उन्होंने खरतरगच्छ पट्टावली का प्रमाण दिया है, जिसमें जिनेश्वरसूरिजी को ‘खरतर' बिरुद धारक बताया है। वह पट्टावली अर्वाचीन है तथा 15-16वीं शताब्दी में शुरु हुई अपने गच्छ की मान्यतानुसार लिखी गयी है। तथा पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी ने इन पट्टावलियों को अनैतिहासिक मानी है।*2 अतः उससे जिनचंद्रसूरिजी का खरतरगच्छीय होना सिद्ध नहीं होता है। *1 खरतरगच्छ के प्राचीन ग्रंथों में ‘खरतर' बिरुद की बात ही नहीं है। विशेष के लिये देखें - पृ. 14 से 30 *2 देखें पृ. 31 से 35 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /158 )