________________ परिशिष्ट-4 इतिहास प्रेमी ज्ञानसुन्दरजी म.सा. का ऐतिहासिक प्रमाणों से युक्त अभिप्राय इतिहासप्रेमी ज्ञानसुन्दरजी म.सा. ने ठोस ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार से 'खरतरगच्छ' शब्द के प्रयोग की प्रवृत्ति 14वीं शताब्दी से शुरु होनी बतायी है। देखियेः अब आगे चलकर हम सर्वमान्य शिलालेखों का अवलोकन करेंगे कि किस समय में खरतरशब्द का प्रयोग किस आचार्य से हुआ है। इस समय हमारे सामने निम्नलिखित शिलालेख मौजूद हैं 1. श्रीमान् बाबू पूर्णचंदजी नाहर कलकत्ता वालों के संग्रह किये हुए ‘प्राचीन शिलालेख संग्रह' खण्ड 1-2-3 जिनमें 2592 शिलालेख हैं, जिसमें खरतर गच्छआचार्यों के वि.सं. 1379 से 1980 तक के कुल 665 शिलालेख हैं। 2. श्रीमान् जिनविजयजी सम्पादित 'प्राचीनलेखसंग्रह' भाग दूसरे में कुल 557 शिलालेखों का संग्रह है जिनमें वि. सं. 1412 से 1903 तक के 25 शिलालेख खरतरगच्छ आचार्यों के हैं। 3. श्रीमान् आचार्य विजयेन्द्रसूरि सम्पादित 'प्राचीनलेखसंग्रह' भाग पहिले में कुल 500 शिलालेख हैं उनमें 29 लेख खरतराचार्य के हैं। 4. श्रीमान आचार्य बद्धिसागरसरि संग्रहीत ‘धात् प्रतिमा-लेख संग्रह' भाग पहिले में 1523, भाग दूसरे में 1150 कुल 2673 शिलालेख हैं। जिनमें वि. सं. 1252 से 1795 तक के 50 शिलालेख खरतराचार्यों के हैं। एवं कुल 6322 शिलालेखों में 779 शिलालेख खरतराचार्यों के हैं। अब देखना यह है कि वि. सं. 1252 से खरतराचार्य के शिलालेख शुरु होते हैं। यदि जिनेश्वरसरि को वि. सं. 1080 में शास्त्रार्थ के विजयोपलक्ष्य में खरतर-बिरुद मिला होता तो इन शिलालेखों में उन आचार्यों के नाम के साथ खरतर-शब्द का प्रचुरता से प्रयोग होना चाहिये था, हम यहाँ कतिपय शिला-लेख उद्धृत करके पाठकों का ध्यान निर्णय की ओर खींचते हैं। संवत् 1252 ज्येष्ठ वदि 10 श्री महावीरदेव प्रतिमा अश्वराज श्रेयोऽर्थं पुत्र भोजराज देवेन कारिपिता प्रतिष्ठा जिनचंद्र सूरिभिः।। आ. बुद्धि धातु प्र. ले. सं. लेखांक 930 इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /116