________________ 161414 मरिहंत, सिद्ध, साधु, सम्यग् दृष्टि देवों की और स्व की साक्षी से श्रीचन्द्र ने ये व्रत ग्रहण किये। जिसमें सम्यक्त्व मूल है, गुण रुपी क्यारियें हैं, शील रूपी प्रवाल है व्रतरूपी जिस की शाखायें हैं / ऐसा श्रावक धर्म जो कल्पवृक्ष के समान है, वह मुझे शाश्वत सुख देने वाला बने / ऐसा कहकर गुणचन्द्र सहित गुरू महाराज को नमस्कार करके, प्रतापसिंह राजर्षि आदि नवदीक्षित साधुनों और सूर्यवती आदि साध्वीजी आदि प्रत्येक को वन्दन करके, जिनके नेत्रों से आंसू झर रहे हैं ऐसे श्रीचन्द्र राजाधिराज उनके गुणों को याद करते हुये महल में गये / श्री सुव्रताचार्य आदि राजा की अनुमति लेकर पृथ्वी तल पर विहार कर गये / श्रीचन्द्र राजाधिराज श्रावक धर्म को पालते हुये, प्राक'श गामिनी विद्या से भाईयों से युक्त श्री संघ को लेकर, श्री सिद्ध क्षेत्र आदि तीर्थों की और विंध्याचल नदीश्वर द्वीप आदि शाश्वत तीर्थों की यात्रा करते थे / पिता के दीक्षा लेने के पश्चात 18 लब्धियों से युक्त अपने राज्य का सुख पूर्वक पालन करते हुये बहुत समय व्यतीत हो गया प्रतापसिंह राजषि, सूर्यवती साध्वीजी आदि शुद्ध चारित्र पालकर जहां एकावतारी हुये इस स्थान विशेष की शुद्धि के लिये महान स्सूप बनवाकर, सब देशों में रथ यात्रा करायी। पद्मिनी चन्द्रकला प्रादि ने भी मलग 2 रथ यात्रायें करवायीं। कम से भीचन्द्र राजाधिराज के 1600. पुत्र पुत्रियें हुई। उसमें सत्तर अद्भुत पुत्र हुये / श्रीचन्द्र रूपी इन्द्र ने बारह वर्ष कुमार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust