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________________ - श्रीशान्तिनाथ चरित्र। मार्गमें भिक्षाटन करता हुआ वह रास्तेके लोगोंसे रोहणाचलकी राह मालूम करता हुआ क्रमशः उस पर्वतपर पहुँच गया। कहा भी है, कि कोऽतिभारः समर्थानां, किं दूरं व्यवसायिनाम् ? . को विदेशः सुविद्यानां, कः परः प्रियवादिनाम् ?" ___ अर्थात्- "समर्थजनोंके लिये कुछ भी भारी नहीं है; उद्योगियोंके लिये कितनी भी दूरी हो , पर वह जाना कुछ मुश्किल नहीं है। उत्तम विद्यावालोंको विदेश कौनसा है / और प्रिय वचन बोलनेवाले की पराया कौन है ?" - इसके बाद व्याघ्र, रोहणगिरिपर चढ़कर कुदालसे वहाँकी र खोद, अच्छे-अच्छे रत्न निकाल, अपने वस्त्रके छोरमें बाँध, भीख मांग कर पेट पालता हुआ अपने घरकी ओर चला। रास्ता चलते वह एक दिन विश्रामके लिये एक पेड़के नीचे बैठ गया। समय उसने एक नुकीली दाढ़ोंवाले बाघको मुँह फैलाये अपनी औं " आते देखा। उसे देख, डरके मारे वह जान बचानेके लिये शीघ्रताके * साथ उस पेड़ पर चढ़ गया। उस समय रत्नोंकी पोटली, जिसे उसने नीचे रख दिया था, भूमि पर ही पड़ी रह गयी। बाघ, कुछ देरतक उस पेड़के नीचे खड़ा रह कर, अन्तमें निराश हो, जंगलमें चला गया; परन्तु व्याघ्र उसके भयसे वृक्ष पर से नीचे उतरा नहीं इतनेमें वहाँ एक बन्दर आ पहुँचा और अपने चञ्चल स्वभावके कारण झटपट उस रत्नोंकी पोटलीको मुँहमें दबाये हुए उछलता कूदता हुआ भाग गया। उसे पोटली लेकर भागता देख, व्याघ्र झटपट पेड़से नीचे उतरकर उसके पीछे-पीछे दौड़ा; पर वह बन्दर एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर छलांग मारता हुआ थोड़ी देर में कहीं अदृश्य हो गया। उस समय व्याघ्रने सोचा,-"हे जीव ! जिसे निकाचित पाप-कर्म कहते हैं, वही शायद मुझसे पूर्व जन्ममें बन आया है, इसीसे विधाताने मुझे इस पृथ्वीपर ऐसा बना कर भेजा है, कि मैं जिसी काममें हाथ डालता हूँ, वही बिगड़ जाता है। . परन्तु यद्यपि पुण्यरहित प्राणियोंके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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