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________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। wu प्रभो ! मैंने पूर्व-जन्ममें कौनसा ऐसा पुण्य किया था, जिसके प्रभाव से मुझे इतनी बड़ी राजलक्ष्मो विना प्रयासके ही मिल गयी ! यह सुन, सूरिने कहा,-- "हे राजन् ! पूर्व भवमें तुमने अतिथिसंविभाग किया . था, इसीसे यह राजलक्ष्मी तुम्हें प्राप्त हुई है। उसका हाल सुनो---- "इसी भरतक्षेत्रमें क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर है। उसमें वीरदेव नामक एक श्रेष्ठ श्रावक रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुव्रता / वह भी जिनधर्म में बड़ी तत्पर थी / दोनों स्त्री-पुरुषधर्म-कार्यमें मद / रहते हुए गृहस्थाश्रम धर्मका पालन कर रहे थे / एक दिन मी तिथिको वीरदेवने पौषध करके पारणा के दिन विचार किया, जो पर्वके दिन उपवास कर, पौषध करते हुए, पारणके दिन को निखध दान भावके साथ करता है, वह धन्य है / इसलिये यदि का मुझे कोई साधु मिल जाये, तो बड़ा अच्छा हो / " ऐसा विचार वह घरके दरवाज़ेकी तरफ़ टक लगाये देखने लगा। इतनेमें तपस्यो / ' कृशित अंगवाले दो साधुओंको उसने अपने घरकीओर आते देखा देखतेहै वह झटपट उठकर उनके पास जा, उनको प्रणाम कर, भक्ति पूर्वक उन्हें अपने घर ले आया और उन्हें निर्दोष अन्न-जल खाने-पीनेको दिया। इसके बाद कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे जा, फिर उन्हें प्रणाम कर, अपने घर आ, वह सोचने लगा,-"मैं बड़ा ही पुण्यवान् हूँ। मेरा जन्म सफल है / क्योंकि कहा हुआ है, कि “सत्पात्रं महती श्रद्धा, काले देयं यथोचितम् / धर्मसाधनसामग्री, धन्यास्येयं प्रजायते // 1 // " अर्थात्--सत्पात्र, महती श्रद्धा और समयानुकूल योग्य वस्तुका दान, ये धर्म-साधनकी सामग्रियाँ धन्य पुरुषों को ही प्राप्त होती हैं।' उसकी स्त्री सुव्रता भी सोचने लगी,-"मेरे यह स्वामी बड़े ही .. पुण्यवान् हैं, जिन्होंने श्रद्धाके साथ साधुको दान दिया।” इस प्रकार विशुद्ध भावसे दानका अनुमोदन करनेके कारण वह भी पात्रदानके पुण्यकी अधिकारिणी हुई / इसके बाद दोनों स्त्री-पुरुषने अनेक बार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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