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________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। भी न रहे। यह या तो मेरे पापोंका फल है अथवा देवकी यही गति है ! कहा भी है, "देवमुलंय यत्कार्य, क्रियते फलवन्न तत् / . सरोऽम्भश्चातकेनात्त, गलरंध्रेण निर्गतम् / / 1 / / ". अर्थात्--"दैवका उल्लंघन करके जो काम किया जाता है, उसका कोई फल नहीं होता / जैसे कि, चातक सरोवरका जल चोंचसे उठाता है सही; पर वह गलेके छिद्रसे बाहर निकल जाता है-पेटमें नहीं जाने पाता' __ “पर जो कुछ हो, मुझे उद्यमका त्याग कदापि नहीं करना चाहियेविपत्तिमें भी पुरुषार्थ करनाही उचित है। पण्डितोंने कहा है, "नीचैर्नारभ्यते कार्य, कर्तुं विघ्न भयात् खलु / प्रारभ्य त्यज्यते मध्यैः, किञ्चिद्विघ्न उपस्थिते // 1 // उत्तमास्त्वन्तरायेषु, भयत्स्वपि सहस्रशः / प्रशस्य कार्यमारब्धं, न त्यजन्ति कथञ्चन // 2 // " अर्थात्--'नीच मनुष्य इसी डरसे कोई काम नहीं करते, कि कहीं उसमें कोई विघ्न न पड़ जाये; मध्यम श्रेणीके मनुष्य कार्यारम्भ तो कर देते हैं, पर पीछे कोई विघ्न उपस्थित होते ही उससे हाथ खींच लेते हैं। परन्तु उत्तम पुरुष हज़ारों विघ्न पड़नेपर भी आरम्भ किये हुए प्रशंसनीय कार्यको नहीं छोड़ते / " ___ इसी प्रकार विचार करता हुआ सुलस आगे बढ़ा। इतनेमें एक जगह उसे झण्डके-झुण्ड गिद्ध दिखाई दिये / उन्हें ही लक्ष्यमें रखकर वह पास पहुँचा, तो उसे एक लाश नज़र आयी। उसके वस्त्रके छोरमें का रोड़ोंकी कीमतीके पांच रत्न देखकर उसने अपने मनमें सोचा : अदत्तादानसे विरति कर ली है, पर यह लावारिसी धनग र लिये बेजा नहीं है / इन रत्नोंकी जो कीमत आयेगी, इसका इनके स्वामीके पुण्यार्थ चैत्य (मन्दिर) बनवा दूंगा / " यही सोच, उन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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