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________________ 332 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। खड़ी हो, उसे आसन दे, उसकी बड़ी ओवभगत की। सुलस भी मित्रोंके कहनेसे वहीं बैठ रहा। रण्डीने गप-शप करनी शुरू की। उसकी चिकनी-चुपड़ी बातें सुन कर वह उस पर बेतरह लट् हो गया। यह बात ताड़ कर उसके सब मित्र वहाँसे उठ कर अपनेअपने घर चले गये। फिर तो उस वेश्याने धीरे-धीरे उसे ऐसा हत्थे चढ़ाया- इस प्रकार उसका दिल खुश कर दिया,-कि वह उसके घरसे बाहर निकला ही नहीं। वह वहीं पड़ा हुआ बापका माल उड़ाने-खाने लगा। इसी प्रकार उसने सोलह वर्ष बिता दिये। इसी समय देवयोगसे उसके मां-बाप मर गये। तब उसकी स्त्री भी उसे उसी तरह उड़ानेके लिये धन देने लगी। कुछ दिनोंमें सारा खजाना खाली हो गया। तब उसकी स्त्रीने उस वेश्याकी दासीके द्वारा अपने गहने उसके पास भिजवा दिये। यह देख, उस रंडीकी नायकाने अपने मनमें विचार किया, कि इस मुएके घर धनका अब पूरा टोटा हो रहा है। अब हम किसीकी देहके गहने क्यों लें ?" यही सोच कर बुढ़ियाने हज़ार रुपयेके साथ वे गहने उसकी स्त्रीको लौटा दिये। इसके बाद उसने अपनी बेटी कामपताकासे कहा,-"बेटी ! अब इस मरदुएके पास धन बिलकुल ही नहीं रहा , इसलिये इसे छोड़ देना ही ठीक है।" वेश्याने कहा,-"जिसने हमें इतना धन दिया और जिसके साथ मैंने सोलह वर्ष तक भोग-विलास किया। उसे अब क्योंकर त्याग करते बनेगा ?" यह सुन, कुटिनी बुढ़ियाने कहा,-"हमारे कुलकी तो यही रीति है। कहा भी है, कि “विभवो वीतसंगानां वैदग्ध्य कुलयोषिताम् / . दाक्षिण्यं वणिजां प्रेम, वेश्यानाममृतं विषम् // 1 // " . अर्थात- 'संग-हीन साधुओंका वैभव, कुल-स्त्रियों की बेहद चतुराई, बनियोंकी उदारता (खचीलापन) और घेश्याओंका प्रेम--अमृत होनेपर भी विषके तुल्य है / "हमारा तो यही काम है, कि धनधानकी सेवा करें और मिर्धनको Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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