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________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। म. करमा और प्रतिदिन रातके समय विमानमें बेठकर मेरे पास आया करना। उसके ऐसा कहने पर भी, मैंने मा-बापके आग्रह और कुमारके अनुरागमें पड़कर इनके साथ शादी कर ली। यह मुझे प्यारे हैं और मैं इनकी प्यारी है, इसमें शक नहीं ; पर ये किसी-न-किसी तरहसे मेरा वहाँपर जाना जान गये हैं और शायद उन्होंने उस विद्याधरको भी आँखों देख लिया है। अतएव अब मेरे मनमें यह शङ्का हो रही है, किया तो वह विद्याधर मेरे प्राणवल्लभकी जान ले लेगा या मुझे मार डालेगा। सखी! इसीलिये मैं बड़ी चिन्तामें पड़ गयी हूँ। उसपर मेरी यह युवावस्था तो और भी आफ़तका परकाला हो गयी है। मेरा पितृकुल और श्वसुरकुल, दोनों ही उत्तम और प्रसिद्ध हैं। इधर दुनियाँमें हर तरहको प्रकृतिवाले लोग हैं, जो अवाही-तवाही बका ही करते हैं। इन्हीं सब बातोंको सोच-सोच कर मैं व्याकुल हुई जाती हूँ।" उसकी यह बातें सुन, उसकी सखीने कहा,-"सखी! आज तो तुम यहीं रह जाओमैं अकेली जाकर उसले कहूँगी, कि मेरी सखी की तबियत आज अच्छी नहीं है। यह सुन, कनकवतीने कहा, "हे शुभचित्त वाली ! ऐसाही करो। यह कह, कनकवतीने विमानको रचना कर, उसे दे दिया। यह ज्योंही विमान पर चढ़कर चली, त्योंही गुणधर्मकुमार भी उसके साथ हो लिये। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया,-रहो , मैं आज ही उस विद्याधरकी सारी चौकड़ी भुलाये देता. हूँ और जीव-लोकमें रहनेवाली स्त्रियोंके नाचोका शौक मिटाये देता हूँ। क्रमशः वह विमान वनमें पहुँचा। खेचरोंने श्रीजिनेश्वरकी सामः पूजा प्रारम्भ कर दी थी। इतनेमें दासी विमानपर चढ़ी हुई पहुँची और नीचे उतरकर जिनालयमें आयी। कुमार भी छिपे-छिपे सब कुछ देखने लगे। इतने में एक खेचरने उस दासीसे पूछा, "आज आने में देर क्यों हुई और तुम्हारी स्वामिनी कहाँ रह गयी?" उसने पहलेसे ही सोचा हुआ उत्तर दिया, कि अमुक कारणसे मेरी स्वामिनीने आज मुझ ही यहाँ भेजा है। यह सुनते ही खेचरोंके स्वामीने क्रोधके साथ कहा,-. . . Jun Gun Aaradhak Trust . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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