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________________ rammarrinaamana AmrAvv चतुर्थ प्रस्ताव। मुझ परदेशीके साथ उसका व्याह करना ठीक नहीं। यह सुन, सेठने फिर कहा, "कुमार! तुम मुझे ऐसा टकासा जवाब क्यों दे रहे हो ? : मेरी पुत्रीकी तुम्हारे ही ऊपर प्रीति हो गयी है, इसलिये अब मैं उसे दूसरे पुरुषको क्योंकर सौमूंगा ? कहा भी है कि, "शत्रुभिर्वन्धुरूपै सा, प्रक्षिप्ता दुःखसागरे / या दत्ता हृदयानिष्ट-रमणाय कुलांगना // 1 // अर्थात्- 'भले घरकी लडकी का व्याह जो लोग उसके मनके मुताबिक वरसे नहीं करते अथवा नापसन्द वरके हाथमें उसे सौंप देते हैं, वे उसके बन्धु होकर भी शत्रु हैं और उसे मानों दुःखसागरमें डुबो देते हैं।" इस तरह जब उस सेठने बड़ा आग्रह किया तब उसने भी विवाह करना स्वीकार कर लिया / इसके बाद अच्छेसे लग्न नक्षत्र में सेठने उन दोनोंका व्याह कर दिया। यह समाचार सुन, पुण्यसार अपनी कुलदेवीके पास आ, हथियारसे अपना सिर काटने लगा। उसी समय देवीने प्रकट होकर उससे कहा,-"बेटा ! यह दुःस्साहस तुम किस लिये कर रहे हो?” उसने कहा,-"मेरी चहेती लड़कीसे दूसरेने शादी कर ली। अब मैं जी कर क्या करूँगा ?" यह सुन, कुलदेवीने कहा,-"बेटा ! जिस कन्याको मैं तुम्हें दे चुकी हूँ, वह तुम्हारी ही होकर रहेगी। व्यर्थ ही मरनेको न ठानो।” पुण्यसारने कहा,"परस्त्रीका सङ्ग करना मेरे लिये उचित नहीं। फिर जब इसका व्याह हो गया, तय मेरे किस काम की ?" देवीने फिर कहा,-"बेटा! आज यह भलेही किसीकी बहू कहलाती हो, लेकिन यह न्यायसे तुम्हारी - ही स्त्री होगी।" यह कह, देवी अपने स्थानको चली गयीं। पुण्यसारको उनकी बातोंसे बड़ा आश्चर्य हुआ ; तो भी उसने मनसे शङ्का दूर कर, देवताके वचनको सत्य ही मान लिया। यहाँ रहते हुए भी गुणसुंदरीका पतिसे मिलना नहीं हुआ, इसलिये यह बड़ी दुखी हुई। कहीं उसे अपने स्वामीका पता नहीं मिला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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